मित्रों धर्म या आस्था संसार में हम मनुष्यों को एक बहुत बड़ा सहारा या उम्मीद देता आया है।

हम सभी एक आदि शक्ति या परम ब्रह्म में हमेशा से विश्वास करते आये है। इस परम शक्ति या ब्रह्म शक्ति की हम कई रूपों में पूजा या उपासना करते है। 

जैसे कि हिन्दू धर्म में शक्ति को स्त्री रूप माना गया है। इसी देवीय शक्ति की उपासना कर शक्ति प्राप्त करने का महापर्व ही नवरात्री (Navratri) कहलाता है।

भारतीय संस्कृति में विशेष रूप से हिन्दू धर्म में स्त्री को हमेशा से मान दिया जाता रहा है। धार्मिक ग्रंथो में भी स्त्री रूप को हमेशा पूजनीय माना गया है। 

किसी न किसी रूप में स्त्री को देवी और शक्ति के रूप में पूजा जाता गया है। इसी का एक रूप है, नवरात्री जिसमे अदि शक्ति के नौ रूपों की उपासना की जाती है।

हिन्दू मान्यता के अनुसार शिव को आदि पुरुष के रूप में पूजा जाता है। उनको रचियता और सहारक दोनों रुपो में पूजा जाता है और उनकी शक्ति के रूप को देवी के रूप में पूजा जाता है।  

शिव की शक्ति को आदि शक्ति के नाम से जाना जाता है और उसी आदि शक्ति की पूजा उसके नौ रूपों में की जाती है।

यदि हम अपने देश में देखे तो हर रोज़ ही कोई न कोई उपवास, पूजा या त्यौहार होता है। परन्तु कुछ प्रमुख हिन्दू त्योहारों की बात करें तो वो है।

होली, दिवाली, दशहरा, नवरात्री, गणेश चतुर्थी (ganesh chaturthi) इत्यादि। ये सभी त्यौहार हिन्दू धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण होते है।

इनको बहुत धूम धाम से मनाया जाता है, और कई दिन पहले से इन् त्योहारों की तैयारी शुरू हो जाती है।

सभी लोग बहुत आस्था और विश्वास के साथ इन त्योहारों को मनाते है। परन्तु शक्ति स्वरुप देवियो की उपासना का नो दिन चलने वाला नवरात्री पर्व विशेष महत्व रखता है।

इन दिनों में गरबे (Garba) की धूम देखते ही बनती है, तो वही दुर्गा पूजा (Durga Puja ) में कई किलोमीटर तक सजे पंडालों की आभा अलग ही होती है।

Navratri Kitni Baar Aate Hain

यद्पि वर्षभर में नवरात्री पर्व  चार बार मनाया जाता है परन्तु प्रमुख रूप से चैत्र और शारदीय नवरात्र ही मनाये जाते है।

चारो नवरात क्रमवत निम्न प्रकार से है –

1. मघा नवरात्री

ये नवरात्री सर्दियों में जनवरी से फरवरी के बीचआती है। जिसके दौरान ही पंचमी तिथि को बसंत पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है। जिसका बंगाली समाज में बहुत महत्व होता है।  

यह भी कह सकते है, कि मकर संक्रांति (Makar sankranti) के पश्चात् आने वाला प्रमुख त्यौहार है।

2. आषाढ़ नवरात्री

ये नवरात्री वर्षा ऋतू में आती है। इसको गुप्त नवरात्र के नाम से भी जाना जाता है। इसमें देवी के नौ रूपों को अलग अलग सिद्धियों की प्राप्ति के लिए पूजा जाता है।

इसकी पूजा गुप्त रूप से एकांत में की जाती है। इसी कारण इसको गुप्त नवरात्री के नाम से जाना जाता है। 

3. शारदीय नवरात्री

ये सबसे प्रमुखता से मनाये जाने वाले देवी के नौ दिन होते है। यह लगभग संपूर्ण भारत के सभी प्रदेशो में प्रखर रूप से मनाया जाता है।

दसवे दिन भगवान राम के द्वारा रावण के वध का पर्व दशहरा मनाया जाता है।

4. चैत्र नवरात्री

ये नवरात्र होली के बाद आता है। इसको भी भारत में बड़े आस्था और विश्वास के साथ मनाया जाता है। 

शारदीय नवरात्री के बाद हिंदी भाषी प्रदेशो में यह नवरात्री अधिक महत्त्व रखती है। आज हम इसी के बारे में बात करेंगे।

शारदीय नवरात्री | Shardiya Navratri

इस समय में देवी के इन्ही नौ रूपों की विशेष पूजा अर्चना उनको प्रसन्न करने के लिए की जाती है, जिससे साधक को देवी की सभी शक्तियों का अंश प्राप्त हो सके। 

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आज हम लोग इन्ही नौ दिनों में देवी के इन्ही नौ रूपों के विषय में कुछ जानकारी साझा करेंगे। तो चलिए जानते है, कि नौ दिनों में देवी के किन किन रूपों की पूजा की जाती है और उनसे क्या फल प्राप्त होते है। 

माता शैलपुत्री | Shailputri

प्रथम (पहले ) दिन शैलपुत्री नामक देवी की उपासना करते है। देवी का ये नाम उनके पिता शैलराज के नाम पर पड़ा है। 

देवी शैलपुत्री को हेमवती और पार्वती के नाम से भी जाना जाता है। देवी शैलपुत्री अपने पूर्व जन्म में ब्रह्मा जी के मानस पुत्र दक्ष की पुत्री थी इनके पूर्व जन्म में भी इनका विवाह भगवन शिव से ही हुआ था।

पूर्व जन्म में शैलपुत्री का नाम देवी सती था। शिवजी के औघड़ रूप की वजह से दक्ष और उनका परिवार भगवान् शिव को पसंद नहीं करता था। 

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इसका एक कारण ये भी था की दक्ष भगवन विष्णु का उपासक था और वो सिर्फ उन्ही को पूजना चाहता था। माता सती की ज़िद की वजह से दक्ष को शिव और सती के विवाह को स्वीकारना पड़ा परन्तु वह शिव को नीचा दिखाने का कोई भी अवसर जाने नहीं देता था। 

इसलिए दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ करवाया और उस मे भगवन शिव और माता सती को आमंत्रित नहीं किया। 

जब माता सती को इस विषय में जानकारी प्राप्त हुई तो वो अपने पिता के यहाँ पहुंची तो दक्ष ने उनके सामने भी शिव जी का बहुत अपमान किया जिससे क्रोधित होकर माता सती ने यज्ञ कुंड में ही आत्मदाह करके अपने प्राण त्याग दिए। 

वही माता सती अपने पुनर्जन्म में पर्वत राज शैल के यहाँ जन्मी। इसी कारण से उनका नाम शैलपुत्री या हेमवती या पार्वती पड़ा। माता शैलपुत्री की सवारी वृषभ या बैल होता है।

 ॐ देवी शैलपुत्री नमः।

वंदे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥

माता के इस रूप के माथे पर अर्ध चंद्र विराजित होता है, उनका पसंदीदा रंग पीला होता है। उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाहिने हाँथ में कमल का पुष्प होता है। 

माता का प्रिये पुष्प जावा कुसुम या जिसको आम भाषा में हम सब गुड़हल के नाम से जानते होता है। 

माता का ये रूप शांत स्वरुप होता है माता के इस रूप की आराधना से साधक को जीवन में सुख और शांति प्राप्त होती है।

माता शैलपुत्री को चंद्र की स्वामिनी भी कहा जाता है, इसी कारण जब कोई भी साधक माता के इस रूप की उपासना करता है। 

तो उसके जीवन में चंद्र के सरे दोष समाप्त हो जाते है। उसका मैं स्थिर हो जाता है और वो अपने जीवन में शांति का अनुभव करता है, जो सुख के मार्ग को प्रशस्त करता है।

माता ब्रह्मचारिणी | Bramhacharini

दूसरे दिन हम देवी ब्रह्मचारिणी नामक देवी की उपासना करते है। देवी का यह रूप शांत अवं त्याग का प्रतीक है। इस रूप के नाम की भी एक कथा है। 

कहा जाता है जब माता सती ने शैलपुत्री के रूप में दूसरा जन्म लिया तो उनको अपने पूर्व जन्म की कोई भी बात याद नहीं थी । 

और दूसरी और भगवान् शिव भी माता सती के वियोग में पूरी तरह से डूबे हुए थे और संसार की हर बात से विरक्त हो चुके थे। 

ऐसे में देवताओं के पास संसार के कल्याण के लिए माता शैलपुत्री को उनके पूर्व जन्म को याद करवाने के लिए नारद मुनि को उनके पास भेजना पड़ा।

नारद मुनि ने माता शैलपुत्री को उनके माता सती के अवतार  विषय में ज्ञात कराया और  भगवान् शिव को अपने वर के रूप में प्राप्त  लिए जाग्रत किया। 

परन्तु शिवजी तो पूरी तरह माता सती के वियोग में डूबे हुए थे ऐसे में माता शैलपुत्री को उनको ( शिवजी को ) अपने वर के रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप करना पड़ा। 

सैंकड़ो वर्ष तक माता शैल पुत्री ने  उपासना की उनको प्रसन्न करने के लिए। सैंकड़ो वर्ष तक उन्होंने धरती पर कंद, फल, फूल इत्यादि खाकर तपस्या की।

कई वर्षों तक उन्होंने बिना कुछ खाये पिए भगवन को पाने के लिए कठिन तपस्या की। देवी की इसी कठिन तपस्या के कारण उनके इस रूप को ब्रह्मचारिणी के नाम से जाना जाता है।  

देवी के इस रूप के दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाहिने हाथ में कमंडल पाया जाता है। माता के इस रूप का कोई वहां नहीं होता। माता का ये रूप बहुत ही सरल और निच्छल होता है। 

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू। देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

माता ब्रह्मचारिणी का प्रिये रंग हरा है, और उनका प्रिये पुष्प सफ़ेद सेवंती या गुलदाऊदी होता है। 

पूजन में इन पुष्पों का बहुत महत्व है। इनसे माता बहुत प्रसन्न होती है, और अपने साधक को मनोवांछित फल प्रदान करती है। 

देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा से साधक को  तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। जीवन की कठिन समय मे भी उसका मन कर्तव्य पथ से विचलित नही होता है।

देवी अपने साधको की मलिनता, दुर्गुणों ओर दोषो को दूर करती है। देवी की कृपा से सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। साधक सदैव सुखी जीवन को जीता है।

माता चंद्रघटा | Chandraghanta

नवरात्री में देवी के जिस तीसरे रूप की उपासना हम करते है। उसको चंद्रघटा के नाम से जाना जाता है। 

देवी का ये रूप सभी प्रकार की अनूठी वस्तुए प्रदान करने वाला तथा कई विचित्र ध्वनियों को प्रसारित और नियंत्रित करने वाला होता है। 

देवी के मस्तक पर अर्ध चंद्र का वास होता है। जो कि घंटे जैसा दिखाई पड़ता है, जिसके कारण देवी के इस रूप का नाम चंद्रघंटा पड़ा है। 

माता का रूप स्वर्ण की भांति चमकदार होती है। देवी का ये रूप दस भुजाधारी होता है।

इनके दाएं हाथ में ऊपर से पद्म, वाण, धनुष, माला आदि शोभित हो रहे है, तो बाएं हाथ में त्रिशूल, गदा, तलवार, कमण्डल तथा युद्ध की मुद्रा शोभित होती है।

माता की सवारी सिंह है, जिस पर सवार होकर माता दुष्टों का संहार कर संसार का कल्याण करती है।

देवी का ये स्वरुप दुष्टों के संहार के लिए सदैव तत्पर रहता है। देवी को सुगन्धित वस्तुए अति प्रिये होती है। इसी कारण इनकी उपासना में सुगन्धित द्रव्य एवं सुगन्धित पुष्प चढ़ाये जाते है। 

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।

माता का प्रिये पुष्प कमल है. इनका रंग धूसर है। दुर्गा सप्तश्मी के अनुसार दुर्गा जी के इस रूप का जन्म असुरों और दुष्टों के संघार के लिए हुआ है।

देवताओं को असुरों से बचाने के लिए दुर्गा ने माता चद्रघण्टा का रूप धारण किया था। कहते है, कि देवी चन्द्रघण्टा ने राक्षस समूहों का संहार करने के लिए जैसे ही धनुष की टंकार को धरा व गगन में गुजा दिया।

वैसे ही माँ के वाहन सिंह ने भी दहाड़ना आरम्भ कर दिया और माता फिर घण्टे के शब्द से उस ध्वनि को और बढ़ा दिया।

जिससे धनुष की टंकार, सिंह की दहाड़ और घण्टे की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाएं गूँज उठी। उस भयंकर शब्द व अपने प्रताप से वह दैत्य समूहों का संहार कर विजय हुई।

देवी के इस रूप में इनके मुख पर मंद मुस्कान रहती है। माँ प्रचण्ड भुजदण्डों वाले दैत्यों का घमंड चूर करने वाली देवी है, जिसके व्रत अनुष्ठान व पूजन से वांछित फलों की प्राप्त होती है।

रोग, पीड़ाओं सहित कई तरह के दर्द दूर होते हैं। अतः यत्न पूर्वक नवरात्री के पावन पर्व पर माता की अर्चना करनी चाहिए।

माता कुष्मांडा | Kushmadha

चौथे दिन हम देवी के जिस रूप की पूजा अर्चना करते है, वो कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है। देवी का ये रूप सूर्य के समान तेजस्वी माना जाता है।

देवी का ये रूप अष्ट भुजाधारी होता है, जो हमें कर्मयोगी जीवन अपनाकर तेज अर्जित करने की प्रेरणा देता हैं।

उनकी मधुर मुस्कान हमारी जीवनी शक्ति का संवर्धन करते हुए हमें हंसते हुए कठिन से कठिन मार्ग पर चलकर सफलता पाने को प्रेरित करती है।

अपनी मंद हंसी द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण ही देवी का नाम कुष्मांडा पड़ा है। जब सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं था। चारों ओर अंधकार ही अंधकार व्याप्त था।

तब देवी ने अपनी मंद मुस्कान से ब्रह्माण्ड की सरंचना की। इसी कारण देवी के इस रूप को आदि स्वरूपा या आदि शक्ति कहा जाता है।

कुष्मांडा का मन्त्र 

सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥

इनकी अष्ट भुजाओं में से सात भुजाओं में क्रमश: कमण्डल, धनुष बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है और आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। 

इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। वहां निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनका वाहन सिंह है।

इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। मां कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं।

अगर आपके घर में कोई लंबे समय से बिमार है, तो इस दिन माँ से खास निवेदन कर उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करनी चाहिए। 

देवी को नवरात्री में पूरे मन से फूल, धूप, गंध, भोग चढ़ाएँ। माँ कूष्मांडा को विविध प्रकार के फलों का भोग अपनी क्षमतानुसार लगाएँ। 

माता का प्रिये पुष्प चमेली का फूल होता है। इसकी सुगंध से माता अति शीघ्र प्रसन्न होकर भक्त की हर इच्छा पूर्ण करती है। माता का प्रिये रंग नारंगी है।

माता स्कंदमाता | Skandmata

पांचवे दिन देवी के जिस रूप की पूजा अर्चना की जाती है वो माता स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है। 

स्कंदमाता ही हिमालय की पुत्री पार्वती हैं, जिन्हें माहेश्वरी और गौरी के नाम से भी जाना जाता है। देवी का रूप गौर वर्ण का है, जिसके कारण इनका एक नाम माँ गौरी भी है।

स्कंदमाता नाम माता को अपने पुत्र भगवान् कार्तिकेय या स्कन्द के नाम पर मिला है और माता को अपने पुत्र के नाम से पुकारा जाना अच्छा लगता है।  

पुराणों के अनुसार प्रसिद्ध देवासुर युद्ध में देवी ने देवताओं के सेनापति के रूप में भाग लिया था। इसी कारण देवी को पुराणों में कुमार एवं शक्ति के नाम से भी जाना जाता है। 

इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। देवी का ये रूप चार भुजा धारी है। ये दाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं।

नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बाईं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है।

ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। 

सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है।

अतः मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है।

स्कंदमाता की पूजा करने से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। शत्रु का भय समाप्त होता है, जीवन में आने वाले संकटों को मां दूर करती हैं।

स्कंदमाता का मंत्र

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

स्कंदमाता की पूजा करने से बल और ज्ञान में भी वृद्धि होती है। कहा जाता है, कि जिन लोगों को त्वचा संबंधी रोग होते हैं। अगर वे स्कंदमाता की पूजा विधि पूर्वक करते हैं, तो उन्हें रोग में आराम मिलता है।

बेहतर स्वास्थ्य के लिए भी मां स्कंदमाता की पूजा करने की परंपरा है। संतान प्राप्ति के लिए भी मां स्कंदमाता की पूजा की जाती है ।

देवी को सफ़ेद रंग प्रिये है, और इनका प्रिये पुष्प पीली घंटी होता है, जो कि अंग्रेजी में ACMADA  के नाम से जाना जाता है।  

इस दिन स्कंदमाता की पूजा विधि विधान से करनी चाहिए। मंत्रों के साथ मां स्कंदमाता की पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। स्कंदमाता को ज्ञान और मोक्ष की देवी भी माना गया है।

माता कात्यायिनी | Katyayani

देवी के इस नाम के पीछे भी एक कथा है की ऋषि कात्यायन देवी के बहुत बड़े भक्त थे और उनकी इच्छा थी कि देवी को वो अपनी पुत्री के स्वरुप में पाए। 

ऋषि की इसी इच्छा को पूर्ण करने के लिए देवी ने ऋषि कात्यायन के यहाँ जन्म लिया और कात्यायिनी के नाम से जानी गयी। 

मां कात्यायनी की नवरात्री में पूजा करने से व्यक्ति प्रसिद्धि और सफलता प्राप्त करता है। चार भुजा वाली मां कात्यायनी शेर पर सवार है, जिनके एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कमल का फूल सुशोभित है।

साथ ही दूसरें दोनों हाथों में वरमुद्रा और अभयमुद्रा है। देवी माँ का प्रिये पुष्प गेंदा है, जो की कई रंग में मिलता है, परन्तु देवी को पीले गेंदे के फूल बहुत प्रिये है।

साधक द्वारा गेंदे के पुष्प अर्पित करने से देवी अति शीघ्र प्रसन्न हो जाती है और साधक को मनोवांछित प्रतिफल देती है। देवी का प्रिये रंग लाल है। 

छठे दिन मां कात्यायनी की उपासना व पूजन से अद्भुत शक्ति का संचार होता है। दुश्मनों का संहार करने के लिए मां शक्ति प्रदान करती हैं।  इनका ध्यान गोधुलि बेला अर्थात् शाम के समय में करना चाहिए। 

यह देवी का वही स्वरूप है, जिन्होंने महिषासुर का वध किया था इसलिए यह दानवों, असुरों और पापी जीवधारियों का नाश करने वाली देवी कहलाती हैं।

आराधना में शहद का बहुत महत्व होता है और पूजन के बाद इसका वितरण प्रसाद के रूप  होता है।  

माता  रूप ने महिषासुर का वध किया था इस कारण देवी का एक नाम महिषासुर मर्दिनी भी है। देवी को बुराई पर अच्छे की जीत के रूप में पूजा जाता है।

इसलिए यह दानवों, असुरों और पापी जीवधारियों का नाश करने वाली देवी कहलाती हैं। विधि पूर्वक पूजा करने से जिन कन्याओं के विवाह में देरी आती है। 

मां कात्यायनी का मंत्र

ॐ कात्यायिनी देव्ये नम:
चंद्र हासोज्ज वलकरा शार्दूलवर वाहनो
कात्यायनी शुभंदद्या देवी दानव घातिनि

इस पूजा से लाभ मिलता है। एक कथा के अनुसार कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए बृज की गोपियों ने माता कात्यायनी की पूजा की थी। 

माता कात्यायनी की पूजा से देवगुरु ब्रहस्पति प्रसन्न होते हैं और कन्याओं को अच्छे पति का वरदान देते हैं। 

आराधना में शहद का बहुत महत्व होता है और पूजन के बाद इसका वितरण प्रसाद के रूप होता है।  

माता  रूप ने महिषासुर का वध किया था इस कारण देवी का एक नाम महिषासुर मर्दिनी भी है। देवी को बुराई पर अच्छे की जीत के रूप में पूजा जाता है।

इसलिए यह दानवों, असुरों और पापी जीवधारियों का नाश करने वाली देवी कहलाती हैं। विधि पूर्वक पूजा करने से जिन कन्याओं के विवाह में देरी आती है इस पूजा से लाभ मिलता है।

एक कथा के अनुसार कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए बृज की गोपियों ने माता कात्यायनी की पूजा की थी।

माता कात्यायनी की पूजा से देवगुरु ब्रहस्पति प्रसन्न होते हैं, और कन्याओं को अच्छे पति का वरदान देते हैं। 

माता कालरात्रि | Kalratri

माता कालरात्रि या काली का स्वरुप अत्यंत वीभत्स माना गया है। परन्तु माँ का हृदय अत्यंत कोमल है। मां दुर्गा को कालरात्रि का रूप असुर शुम्भ निशुम्भ के वध करने के लिए धारणा पड़ा था। 

शुम्भ निशुम्भ को वरदान था की उनके रक्त की जितनी बूंदे धरती पर गिरेंगी उनके उतने ही रूप जन्म ले लेंगे, जिसके कारण देवताओं के लिए उनका वध करना असंभव हो गया था।

और देवताओं की पराजय निश्चित ही दिख रही थी ऐसे में माँ दुर्गा या आदि शक्ति रूप को देवी कालरात्रि का रूप धारणा पड़ा। 

देवी का ये वीभत्स्व रूप उनके अत्यधिक क्रोध के कारण है देवी ने असुर रक्तबीज से युद्ध किया और उसका वध करने पर देवी ने उसके रक्त की एक बूँद भी धरती पर नहीं गिरने दी।

अपने हाथ के खप्पर में इकठा करके उस रक्त का पान किया। इसी कारण देवी का रंग काला पड़ गया ऐसा भी कहा जाता है।

मां कालरात्रि के तीन नेत्र हैं। जो कि पूरी तरह आकार में गोल है। मां के गले में नरमुंडों की माला है और इनकी सासों से अग्नि निकलती है। देवी कालरात्रि के बाल खुले हुए हैं और यह गधे  सवारी करती हैं।

उनके दहिने हाथ अपने भक्तों को आर्शीवाद देते हुए है और इसके नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। मां के बायीं तरफ के ऊपरी हाथ में लोहे का कांटा और इसके नीचे वाले हाथ में खड्ग है।

मां की उपासना से सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए मां की उपासना शुभकारी कहलायी गई है।

मां कालरात्रि काल से भी रक्षा करती हैं। इसलिए इनके साधक को आकाल मृत्यु का भी भय नही होता। भक्तों के लिए मां कालरात्रि सदैव शुभ फल देने वाली हैं।

देवी कालरात्रि की पूजा करने से भूत प्रेत, राक्षस, अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि सभी नष्ट हो जाते हैं।

मां कालरात्रि के मंत्र

ॐ कालरात्र्यै नम: 
ॐ फट् शत्रून साघय घातय ॐ 
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं दुर्गति नाशिन्यै महामायायै स्वाहा 
ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।

अगर किसी की कुंडली में सभी ग्रह खराब हो या फिर अशुभ फल दे रहे हों, तो नवरात्री के सातंवें दिन उस व्यक्ति को मां कालरात्रि की पूजा अवश्य ही करनी चाहिए।

क्योंकि सभी नौ ग्रहो की स्वामिनी है। मां कालरात्रि के आर्शीवाद से उनके भक्तों की सभी परेशानियां समाप्त हो जाती है।

माता की पूजा सदैव ब्रह्म मुहर्त में ही की जाती है। परन्तु तांत्रिक अपनी तंत्र सिद्धि के लिए देवी की उपासना मध्यरात्रि में करते है।

कई जगहों पर विशेष रूप से बंगाल में देवी के इसी रूप को सबसे बड़ा माना  जाता है और पूजा जाता है। बंगाल में देवी को बलि भी चढ़ाई जाती है। 

कई जगह पूजन में देवी को नीम्बुओं की माला भी अर्पित की जाती है। देवी का रंग नीला है और प्रिये पुष्प कृष्ण कमल है।

माता महागौरी | Mahagauri

जब माँ कालरात्रि ने असुर रक्तबीज का वध किया और उसका सारा रक्त पी लिया तो उस रक्त और अत्यधिक क्रोध के कारण देवी का रंग काला पड़ गया और देवी का रूप अत्यंत वीभत्स हो गया।

तब देवताओं के कहने पर देवी ने अपने क्रोध को शांत करने और अपने वीभत्स रूप के लिए गंगा जल से स्नान किया। 

गंगा जल की शीतलता से देवी का क्रोध शांत हुआ और उनका रंग अत्यंत गौर वर्ण हो गया जिससे उनका नाम महागौरी पड़ा।

देवी के इस नाम के पीछे एक और कथा है कि जब देवी ने शैलपुत्री के रूप में जन्म लिया और शिव का वरण करने के लिए कठिन तप किया।

शिव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर उनको अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण किया अत्यंत कठोर तप के कारण देवी माँ का शरीर अत्यंत निर्बल और रूप काला पड़ गया।

जिसके लिए शिवजी ने देवी के ऊपर गंगाजल को छिड़का जिससे माँ का रूप गंगा की तरह निश्छल और पवन हो गया और उनका वर्ण अत्यंत गौर हो गया। जिसकी वजह से उनका नाम महागौरी पड़ा।

देवी के इस रूप की चार भुजाएं है इनके दाहिनेऔर ऊपर वाले  हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले हाथ में त्रिशूल है। 

बाएं ओर के ऊपर वाले हाथ में डमरू और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। माता का ये रूप अत्यंत शांत और निर्मल है माता सदैव अपने भक्तो पर अपनी दया और करुणा की वर्षा करती है। 

माता को पुकारने पर माता अपने भक्तों की सारी  इच्छाओं को पूर्ण करती है। देवी महागौरी की नवरात्री में पूजा करने से हर तरह के कष्ट दूर हो जाते हैं। जो स्त्री इनकी पूजा करती हैं।

देवी उनके सुहाग की रक्षा करती हैं। देवी महागौरी की पूजा से कुंवारी लड़कियों को योग्य वर मिलता है। जो पुरूष इनकी पूजा करते हैं, उनका जीवन सुखमय रहता है।

इनके प्रभाव से हर तरह के पाप खत्म हो जाते हैं। इनकी पूजा से आनंद और सुख मिलता है। असंभव काम भी पूरे हो जाते हैं।

देवी महागौरी की पूजा करने से मनोवांछित फल भी मिलते हैं। देवी की पूजा से पाप खत्म जाते है। जिससे मन और शरीर शुद्ध हो जाता है। अपवित्र व अनैतिक विचार भी नष्ट हो जाते हैं।

देवी महागौरी की पूजा का मंत्र

श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।

देवी दुर्गा के इस सौम्य रूप की पूजा से मन की पवित्रता बढ़ती है। जिससे सकारात्मक ऊर्जा भी बढ़ने लगती है। मन को एकाग्र करने में मदद मिलती है।

माता महागौरी के विषय में एक कथा और प्रचलित है, कि जब देवी कठोर तप में लीं थी। एक सिंह जो बहुत भूखा था। वह पहुंचा जहाँ देवी तपस्या कर रही थी। 

सिंह भी वही बैठ गया और देवी के तपस्या से उठने का इंतज़ार करने लगा इससे उसकी दशा और दीन हो गयी।

जब देवी ने आंख खोली तो सिंह को भी अपने सामने बैठा पाया जीर्ण अवस्था में तब देवी ने कहा की तुमने भी मेरे साथ कठोर तप किया है।

इसलिए अब तुम सदैव मेरे साथ रहोगे। इसलिए देवी का वहां सिंह और बैल दोनों है। देवी महागौरी का प्रिय रंग गुलाबी और प्रिये पुष्प बेला है, जो की एक बहुत ही खुशबूदार पुष्प होता है। 

बेला के फूलों की महक से देवी का मैं अति प्रसन्न हो जाता है और वो अपने भक्त को समस्त आशीषें प्रदान करती हैं। इसलिए देवी को पूजा में बेला के फूल अर्पित किये जाते हैं। 

माता सिधात्री | Sidhhatri

नवरात्री के नौवें और अंतिम दिन माता सिधात्री की पूजा अर्चना पश्चात् नौ दिन की पूजा की समाप्ति होती है।

मां सिद्धिदात्री की पूजा करने से व्यक्ति को कार्य सिद्धि प्राप्ति होती है, साथ ही शोक, रोग एवं भय से भी मुक्ति मिलती है। 

देव, गंदर्भ, असुर, ऋषि आदि भी सिद्धियों की प्राप्ति के लिए मां सिद्धिदात्री की आराधना करते हैं। देवों के देव महादेव भी इनकी पूजा करते हैं।

माँ सिधात्री की कृपा से ही भगवान् शिव को अर्धनारीश्वर का रूप प्राप्त हुआ था। असल में माता ही आदि शक्ति का रूप है।

शिव ने माता को प्रसन्न करने और उनकी शक्तिओं को अपने में समाहित करने के लिए उनकी कठोर तपस्या की और देवी और शिव एक हुए।

शिव और शक्ति के इसी मिलान के कारण शिव का एक नाम अर्धनारीश्वर भी पड़ा।  माँ के इस रूप में सारी शक्तियों और सिद्धियों का वास होता है। इसी कारण उन्हें सिधात्री कहा जाता है। 

देवी का आसन कमल का पुष्प होता है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व- ये आठ सिद्धियां होती हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में यह संख्या अठारह बताई गई है। इनके नाम इस प्रकार हैं –

1. अणिमा 2. लघिमा 3. प्राप्ति 4. प्राकाम्य 5. महिमा 6. ईशित्व,वाशित्व 7. सर्वकामावसायिता 8. सर्वज्ञत्व 9. दूरश्रवण 10. परकायप्रवेशन 11. वाक्‌सिद्धि 12. कल्पवृक्षत्व 13. सृष्टि 14. संहारकरणसामर्थ्य 15. अमरत्व 16. सर्वन्यायकत्व 17. भावना 18. सिद्धि

इन् सभी सिद्धियों की प्राप्ति भगवान् शिव को देवी की उपासना से हुई थी। देवी का जो भी उपासक सच्चे मन से देवी की पूजा अर्चना करता है। देवी उसको भी ये सारी  सिद्धियां प्रदान करने में सक्षम है। 

मां सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प है। अन्य में गदा,चक्र एवं शंख है। 

देवी सिधात्री का मंत्र

या देवी सर्वभू‍तेषु मां सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

देवी के उपासक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं और इसके बाद वो निश्चिन्त हो जाता है। 

इनकी आराधना से जातक को अणिमा, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, सर्वकामावसायिता, दूर श्रवण, परकामा प्रवेश, वाकसिद्ध, अमरत्व भावना सिद्धि आदि समस्त सिद्धियों नव निधियों की प्राप्ति होती है।

आज के युग में इतना कठिन तप तो कोई नहीं कर सकता। लेकिन अपनी शक्तिनुसार जप, तप, पूजा-अर्चना कर कुछ तो मां की कृपा का पात्र बनता ही है।

प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। मां जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवमी के दिन इसका जाप करना चाहिए।

मां के चरणों का यह सान्निध्य प्राप्त करने के लिए हमें निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करनी चाहिए।

मां भगवती का स्मरण, ध्यान, पूजन, हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हुए वास्तविक परम शांतिदायक अमृत पद की ओर ले जाने वाला है। 

देवी का प्रिये पुष्प स्वर्ण चंपा है। इनका रंग बैंगनी है। आपको महानवमी के दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा ब्रह्म मुहूर्त में कर लेना चाहिए।

तो मित्रों आप सब अब नवरात्री में शक्ति के नौ रूपों के बारे में और उनकी महिमा को जान गए होंगे।

तो इस बार पूरी जानकारी के साथ और पूरे विश्वास के साथ में देवी के नव रूपों की पूरी भक्ति के साथ उपासना कीजिये और देवी के आशीर्वाद से अपने जीवन के हर कष्ट से मुक्ति पाईये। 

उम्मीद करती हूँ अदि शक्ति दुर्गा के सभी नौ रूपों की असीम कृपा आपके और आपके परिवार के साथ हमेशा बनी रहेगी। 

आशा करती हूँ, कि नवरात्री में गरबा ( देवी की पूजा के रूप में किया जाने वाला डांस ) एवं दुर्गा पूजा पंडालों की भव्यता का दर्शन लाभ अति शीघ्र प्राप्त हो।

इस अवसर पर नौ दिन होने वाली राम लीला का भी अपना ही तिलस्म है। यह नौ दिन चलने के बाद दसवे दिन दशहरे पर रावण वध पर समाप्त होती है।

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Who is worshipped during Navratri?

नवरात्री का त्यौहार भारत के त्योहारों में एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

ये ईश्वर के शक्ति रूप को प्राप्त करने या साधने के रूप में मनाया जाता है।
शारदीय और चैत्र नवरात्र बहुत ही धूम धाम से मनाये जाते है।

सभी हिन्दू धर्मवंलम्बी ही नहीं बल्कि भारतीय समाज का हर वर्ग नवरात्री का उत्सव किसी न किसी रूप में मनाता है। नौ दिनों तक उत्सव का माहौल रहता है।

अब तो विदेशों में भी बड़े बड़े गरबा पंडालों का आयोजन किया जाता है। गरबा खेलकर देवी को प्रसन्न किया जाता है। समाज का हर व्यक्ति अपने अंदाज़ में जश्न मनाता है।

शारदीय नवरात्री वर्षा ऋतू से शरद ऋतू के सुहाने पड़ाव की और अग्रसर होने से पहले उसके स्वागत संस्कार का महा आयोजन भी कहा जा सकता है और चैत्र नवरात्री में ग्रीष्म ऋतू से पहले उसके स्वागत की तैयारी की जाती है।

नवरात्री भारतीय समाज की एकता और परम्पराओं के महा मिलन का एक आयोजन है जिसको सभी धर्म, जति और वर्ग के लोगो द्वारा मनाया जाता जाता है।

Why do we celebrate navratri?

नवरात्री |का उत्सव हम नौ दिनों तक मनाते है जिसका असली अर्थ होता है ।

हर तरह की बुराई पर विजय क्योंकि नवरात्री के अगले दिन हम दशहरे के रूप में रावण का वध करके मनाते है।

नौ दिनों तक देवी के अलग अलग रूपों की पूजा की जाती है जो की हमारे अंदर की हर एक कमज़ोरी को काबू करने चरण को दर्शाते है।

हर दिन के व्रत और पूजा के द्वारा हम अपने अंदर की हर कमी और बुराई को मिटाने के पथ पर अग्रसर होते जाते है।

नवरात्री के अंतिम दिन माँ सिधात्री की पूजा अर्चना के साथ हम सभी कमियों और इच्छाओं,बुराइयों पर काबू कर लेते है।

दसवे दिन रावण वध के साथ ये पूजा पूरी होती है और हम शक्ति और ज्ञान की सभी बातों को आत्मसात कर पाते हैं।

हमारे अंदर की शक्ति को पहचान कर उनको और निखार पते है नौ दिनों के जप और तप के द्वारा। अपने मन को नियंत्रित कर पाते है अपनी इन्द्रियों को सही रूप से कैसे इस्तेमाल करे ये सीख पाते है।

How many times navratri comes in a year?

साल में ननवरात्री का त्यौहार 4 बार आता है। इनको हम जिन नामों से जानते है वो है – माघी , आषाढ़ , शारदीय और चैत्र नवरात्री।

माघी और आषाढ़ नवरात्री को गुप्त नवरात्री भी कहा। ये दोनों गुप्त नवरात्री में विशेष सिद्धियों की प्राप्ति की गुप्त रूप से पूजा अर्चना की जाती है

इनको सामूहिक रूप से नहीं मनाया जाता। वही शारदीय और चैत्र नवरात्री का उत्सव बहुत ही धूम धाम और सामूहिक रूप से मनाया जाता है।

चैत्र नवरात्री की समाप्ति के अगले दिन को राम नवमी के रूप में मनाया जाता है वही शारदीय नवरात्री की समाप्ति के अगले दिन बुराई पर अच्छाई पर जीत के रूप में दशहरे के नाम से उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

What is navratri and why it is celebrated?

नौ दिन का उत्सव हिन्दू धर्म में बहुत महत्व रखता है इन नौ दिनों में हम शिव के शक्ति रूप अथार्थ उनके शक्ति रूप या अर्धनारीश्वर रूप में से नारी रूप की वंदना करते है।

अपने अंदर आत्मिक, साध्विक,सांसारिक, शारीरिक शक्तियों को आत्मसात करने के लिए हम ईश्वर के शक्ति रूप को अपनी पूजा और विश्वास, सच्ची साधना भक्ति द्वारा जाग्रत करते है।

समस्त सिद्धियों को अपने और संसार की भलाई के लिए जाग्रत करते है। सही अर्थ में यही तात्पर्य है।