जिस प्रकार धर्म का स्वरूप का वर्णन कठिन है, उतना ही मुश्किल दर्शन ( Darshan ) के स्वरुप को समझाना है। साधारणतः आँखों को दृष्टि अथवा विज़न ( vision ) कहते है।

जिसका प्रयोग हम इस जगत को देखने के लिये करते है। किंतु दर्शन में दृस्टि से तात्पर्य आंखे न होकर हमारी बुद्धि, विवेक, चिंतन और विचार शक्ति से है।

मनुष्य अपने आस पास अनेक प्रकार की वस्तुए देखता है। जिससे वह संसार में स्वयं के एकांकी न होकर बाह्य जगत से घिरा हुआ अनुभव करता है।

स्वयं इस संसार का भाग होने के कारण अन्य पदार्थो और जीवो से कोई न कोई संबंध अनुभव करता है। जब भी कोई मनुष्य इस बाह्य जगत से स्वयं का सम्बंध समझने का प्रयत्न करता है, उसका विवेक जाग्रत हो जाता है।

उसकी बुद्धि द्रुत गति से चिंतन में लग जाती है। किसी मनुष्य की यह अवस्था चिंतन कहलाती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो साधारण दृष्टि हमारी आँखों के द्वारा बाह्य पदार्थो का अवलोकन करती है।

वही दार्शनिक दृष्टि अपने आतंरिक चक्षुओं विवेक, विचार और चिंतन को प्रयोग में लाती है। दर्शन जीवन और जगत्‌ को समभने का एक प्रयत्न है। यह दार्शनिक जीवन और जगत को खण्डश: न देखता हुआ दोनों का अखण्ड अध्ययन करता है।

उसकी दृष्टि में संसार एक अखण्ड सत्ता है, जिसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक कार्य पर पड़ता है। जीवन और जगत के इस सम्बन्ध को समझना ही दर्शन है।

एक सच्चा दार्शनिक विज्ञानवेत्ता की तरह सत्ता के अमुक रूप या अंश का ही ध्ययन नहीं करता, अपितु कवि या कलाकार की भाँति सत्ता के सौन्दर्य का ही विश्लेपण नहीं करता।

वह एक व्यापारी की भाँति केवल लाभ-हानि का ही हिसाब नहीं करता, ना ही एक धर्मोपदेशक की तरह केवल परलोक की ही बातें नहीं करता, अपतु सत्ता के सभी धर्मों का एक साथ अध्ययन करता है।

अपनी विचार-शक्ति व बुद्धि की योग्यतानुमार संसार के प्रत्येक तत्त्व की गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। उसकी खोज किसी समय-विशेप या स्थान-विशेष तक ही सीमित नहीं होती।

प्लेटो के शब्दों में वह सम्पूर्ण काल व सत्ता का द्रष्टा है। उसका दृष्टिकोण इतना विशाल एवं विस्तृत होता है, कि उसके अंदर सब समा सकते हैं, किन्तु बाहर कोई नहीं निकल सकता।

वह कहाँ से चलता है, यह तो दिखाई देता है, किन्तु कहाँ पहुंचता है, इसका पता नहीं लगता। उसकी खोज किसी सीमा-विशेष से सीमित नहीं होती।

इस विवेचन से हम सहज ही समझ सकते है, कि दर्शन का क्षेत्र ज्ञान की सब धाराओं से विशाल है। मानव-बुद्धि की सभी थाखाएँ दर्शन के अंतर्गत आ सकती हैं। जहां मानव-मस्तिप्क सोचना प्रारम्भ करता है, वही दर्शन का प्रारम्भ हो जाता है।

दर्शन ज्ञान की प्रत्येक धारा का अध्ययन करता है, ऐसा कहने का यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक धारा और वस्तु को पूरी गहराई तक जानता है, क्‍योंकि ऐसा करना मानव शक्ति के बाहर है।

Goel of Darshan | दर्शन का उद्देश्य

दर्शन सम्पूर्ण संसार का अध्ययन करता है, जिसका अर्थ प्रकृति के मूलभूत सिद्धांतो की खोज ही मुख्य लक्ष्य है। संसार के इस ताने बाने के मूल में कौन सा तत्व क्या काम कर रहा है।

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जीवन का उस तत्व से क्या सम्बन्ध है। आध्यात्मिक और भौतिक तत्वों में क्या अंतर है। अंतिम और वास्तविक तत्व की क्या कसौटी है। ज्ञेय और ज्ञान से भिन्न है, या अभिन्न इत्यादि प्रश्नो का उत्तर दर्शन का मूल उद्देश्य है।

जीवन और जगत की मौलिक समस्याएं मानव मस्तिष्क की प्रयोगशाला में किस तरह हल हो सकती है। इसका चिंतन करना ही दर्शन का मुख्य कार्य है।

भौतिक विज्ञान की भाती दर्शन केवल संसार की घटना का विश्लेषण अथवा स्पष्टीकरण ही नहीं करता। अपितु उसकी उपयोगिता पर भी विचार करता है।

उपयोगिता ही दर्शन का मूल गुण है, जिसके आधार पर जीवन की वास्तविकता समझने का प्रयास करता है, क्योकि जीवन की वास्तविकता संसार की वास्तविकता से सम्बद्ध है।

अतः जीवन की वास्तविकता समझने वाला संसार की वास्तविकता भी समझ लेता है। भौतिक रूप से संसार के अध्यन की शाखा विज्ञान ( vigyan ) तथा दर्शन से सम्बन्ध को अधिक जानने के लिये लिंक पर जाये।

Dharma and Darshan | दर्शन और धर्म

धर्म और दर्शन के प्रश्न को लेकर मुख्य रूप से दो प्रकार की विचारधाराएँ कार्य कर रही हैं। एक विचारधारा के अनुसार धर्म और दर्शन अभिन्न हैं। दूसरी विचारधारा इस मत से बिलकुल विपरीत है।

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वह इस मत की पुष्टि करती है, कि धर्म और दर्शन का एक दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं धर्म का क्षेत्र बिलकुल अलग है, और दर्शन का क्षेत्र उससे बिलकुल भिन्न है।

दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हैं। उदाहरण के तौर परके शब्दों में धार्मिक व्यक्ति का इससे कोई प्रयोजन नहीं कि दर्शन की अमुक शाखा ईश्वरवाद का समर्थन करती है, या अनीश्वरवाद की स्थापना करती है।

हेगल ने ठीक इससे विपरीत बात कही। उनके मतानुसार धर्म की सत्यता दर्शन में ही पाई जाती है।

इस प्रकार की विरोधी विचारधाराशओ्रों को देखने से यही मालूम होता है, कि भिन्न-भिन्न हृष्टिकोण से भिन्न-भिन्न विचारकों ने धर्म और दर्शन की भिन्न-भिन्न व्याख्या की है।

उस व्याख्या के अनुसार अमुक विचारक धर्म को दर्शन से अभिन्‍न मानता है, तो अमुक विचारक धर्म से दर्शन को भिन्‍न मानता है। वास्तव में घर्मं और दर्शन का क्षेत्र भिन्न-भिन्न है।

यदि दोनों एक ही होते तो दो द्रष्टियो की आवश्यकता ही न होती। धर्म की अपनी दृष्टि होती है, और दर्शन की अपनी दृष्टि
होती है। धर्म की उत्पत्ति, मान्यता तथा दर्शन से सम्बन्ध को अधिक जानने के लिये लिंक ( Dharma ) पर जाये।

Differences between Darshan and Dharma | दर्शन और धर्म के भेद

दोनों को दोनों को अभिन्न कहना तर्क और श्रद्धा को संकीर्ण करना है। दोनों के भेद का सर्वथा नाश करना, विचार शक्ति और श्रद्धापूर्ण आचरण के भेद को समाप्त करना है। यह ठीक है, कि धर्म और दर्शन के कुछ विषय समान है।

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ईश्वर पुनर्भव इत्यादि अनेक प्रश्न दोनों ही धाराओं के सामने आते है। एक धार्मिक व्यक्ति ईश्वर के सम्बन्ध में जिस ढंग से व्यव्हार करता है, एक दार्शनिक वैसा नहीं कर सकता है।

धार्मिक व्यक्ति का श्रद्धापूर्ण आचरण दर्शनशास्त्री को विवश नहीं कर सकता, कि वह भी ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करे। दोनों में विशेष अंतर यह है, कि धर्म में आचरण या व्यव्हार प्रधान होता है, और सिद्धांत या ज्ञान गौंड होता है।

धर्म की दृष्टि में क्रिया का जो मूल्य होता है, ज्ञान का वह मूल्य नहीं होता है। दूसरी तरफ दर्शन में ज्ञान का मूल्य है क्रिया का नहीं। ज्ञान और क्रिया का यही अंतर दोनों की सीमा रेखा है।

दार्शनिक दृष्टिकोण शुद्ध रूप से बौद्धिक होता है, जबकि धार्मिक श्रद्धा का मूल आधार भावुकता है। जो सिद्धांत को बदलने से भी नहीं चुकती है। उसकी दृष्टि में सिद्धांत का कोई मूल्य नहीं होता। ज्योही श्रद्धा बदलती है, सिद्धांत भी बदल जाते है।

इतने पर भी दोनों को नितांत भिन्न नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि धर्म पर जब भी किसी प्रकार का संकट आता है। दर्शन ही उसे बचाने आगे आता है।

इसके बिना धर्म अधिक समय तक नहीं टिक सकता। भावुकता प्रधान मान्यताएं धर्म के क्षेत्र में अपना प्रभुत्व रखती है। कभी कभी दर्शन इस प्रकार की मान्यताओं का खंडन करने का प्रयत्न करता है, तो धर्म के साथ उसका विरोध हो जाता है।

उस विषय में वह उसकी मान्यताओं को मानने के लिए तैयार नहीं होता। परिणाम स्वरुप धर्म और दर्शन के बीच समय समय पर टकराव भी देखा जाता है।

निष्कर्ष यही है, कि दोनों में मौलिक एकता होते हुए भी अंतर है। दोनों का विषय एक होने पर भी पद्धति एवं मार्ग अलग अलग है। मानव जीवन की दो प्रमुख शक्तियों श्रद्धा और तर्क में से एक का आधार तर्क और दूसरे का आधार श्रद्धा है।

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