जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक काल चक्र में अवसर्पिणी के सुषमा-दुषमा नामक तीसरे काल के अन्त में और उत्सर्पिणी के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल के प्रारंभ में जब यह सृष्टि भोगयुग से कर्मयुग में प्रविष्ट होती है, तब तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं।

इनके अलावा 2 चक्रवर्ती, 9 बलरभद्र, 9 नारायण, 9 प्रति नारायण मिल्राकर 63 शलाका पुरुषों को दिगम्बर जैन साहित्य में स्थान मिला है। यह परम्परा अनादिकालीन है। जैन आगम के अनुसार अतीत काल में अनन्त तीर्थकर हो चुके हैं।

प्रत्येक तीर्थकर के समय से उनके समवशरण में आने वाले उनके गणधर, केवली, मनपर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदह पूर्वधारी, विक्रिया लब्धिधारी, वादी, साधु, साध्वी, श्रावक एवम्‌ श्राविकाओं की संख्या लाखों में बताई गयी है।

वर्तमान में चौबीस तीर्थकर हुए है और भविष्य में भी चौबीस तीर्थंकर होंगे। यहाँ वर्तमानकालीन चौबीस तीर्थकरों का संक्षिप्त परिचय (24 Teerthankar Introduction) निम्न प्रकार है।

तथ्यों के आधार पर इसे सबसे प्राचीन धर्म भी माना जाता है। इसके बारे में अधिक जानने के लिये जैन धर्म (About Jainism) पर जाये।

Rishabhanatha | भगवान ऋषभदेव

इन के जन्मकाल के लिए इतिहासकारों में एक होने से ऋषभदेव को प्रागेतिहासिक व्यक्तित्व माना जाता है। ऋग्वेद में इनके उदाहरण प्राप्त होने से वेदपूर्व काल में इनके अस्तित्व के प्रमाण मिलते है।

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इस बारे में विद्वानों की दो राय नहीं हैं। पाश्चात्य विचारक इन्हें पांच से सात हजार साल ईसापूर्व काल का मानते हैं।

इस में विद्यमान अतिशयोक्ति पूर्वक अनुमान का भाग छोडने पर ऋग्वेद का काल जो 5000 से 1000 ई.पूर्व का भाषा विज्ञान शास्त्री मानते हैं। उससे इनका काल 4000 से 7500 वर्ष ईसापूर्व मानने में कोई बाधा नहीं आ सकती है।

ऋषभदेव के पिता नाभिराय चौदहवें मनु माने जाते हैं। माता मरुदेवी की कुक्षी से ऋषभदेव का जन्म हुआ। उनकी जन्मतिथि चैत्र वदी नवमी मानी जाती है।

आगमानुसार चौरासी लाख पूर्व की आयु पूर्ण करके माघ वदी चौदस को उन्होंने निर्वाण पाया। ये तिथियाँ सभी सम्प्रदायों में समान हैं। ऋषभदेव को भरत चक्रवर्ती, बाहुबली आदि सौँ पुत्र और दो पुत्रियाँ – सुंनदा और ब्राहमी प्राप्त हुए।

पुत्रियों को चौसठ कलाएँ और गणित तथा लिपी का ज्ञान उन्होंने कराया। ब्राहमी को लिपी का ज्ञान कराने से वह लिपि आज ब्राहमी लिपि कहलाती है ऐसा जैनी मानते हैं।

पुत्रियों को 72 कलाएँ पढाई। जनता को कृषि शिक्षण देकर कल्पवृक्षों की कमी से उत्पन्न बाधाएँ दूर की। इसलिए उन्हें आदयकृषिवेत्ता भी कहा जाता है। अंतिम दिनो में सर्वसंग परित्याग कर कैलाश पर्वत पर उन्होंने निर्वाण पाया।

उनका जन्म जैन साहित्यानुसार विनीता नगरी में हुआ है। आज अयोध्या को जन्मनगरी माना जाता है। वहाँ इस द्रष्टि से कोई पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इनका उपदेश विश्व भर में पुत्र-सम्राट भरत द्वारा प्रसारित हुआ था।

भरत चक्रवर्ती का शासन षट्खंड पृथ्वी तथा सागर पर था। यथा राजा तथा प्रजा के न्याय से जैनधर्म पूरे विश्व में फैला था ऐसी धारणा जैन साहित्य में प्रदर्शित होती है।

काललब्धिनुसार वह सिमटकर आज प्रमुख रुप से भारत में दिखता है। ऋषभदेव के गणधर (प्रमुख शिष्य) चौरासी थे। इनकी मूर्ति पर वृषभ का लांछन लगाने की परम्परा मौर्य काल से प्रारम्भ हुई है। लांछन न होने वाली मूर्ति चतुर्थ काल की मानी जाती है।

Ajitanath | अजितनाथ

इनका जन्म विनीता नगरी में राजा जितशत्रु और रानी विजया के यहाँ हुआ। उनके जन्म की तिथि माघसुदी 10 एवम्‌ निर्वाण की तिथि चैत्र सुदी 4 मानी जाती है। उनका निर्वाण झारखण्ड राज्य के सम्मेदशिखरजी से हुआ।

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उनके प्रमुख शिष्यों की संख्या 95 थी। हरिवंशपुराण और तिलोयपण्णति में इनके 400 शिष्य होने का उल्लेख है। इन्होंने मध्य एशिया तक जैन धर्म का प्रसार किया था।

ऋषभदेव का संदेश जनता भूल जाने से इन्हें वापस धर्मोपदेश देना पड़ा। इनकी मूर्ति पर हाथी का लांछन होता है।

Sambhavanatha | सम्भवनाथ

इनका जन्म श्रावस्ती नगरी के राजा इढ़राज तथा माता सुषेणा से कार्तिक सुदी पूर्णिमा को हुआ। इनका निर्वाण चैत्रसुदी 6 को
सम्मेदशिखर पर हुआ। इनके गणधरों की संख्या 102 वर्णित की गई है।

इन्होंने साठ लाख पूर्व आयु में एक लाख पूर्व दीक्षा की अवस्था में बिताएँ। इनकी मूर्ति पर अश्व का लांछन होता है।

Abhinandananatha or Abhinandana | अभिनंदननाथ

इनका जन्म विनीता नगरी में राजा संवर एवं रानी सिद्धार्था से माघ सुदी 12 को हुआ। वैशाख सुदी 6 को इनका निर्वाण सम्मेद शिखर पर हुआ। हरिवंश पुराण और तिलोयपण्णति नामक ग्रंथ में निर्वाण वैशाख सुदी 7 वर्णित किया है। इनके 116 गणधर थे।

पचास लाख पूर्व वर्षों की पूर्ण आयु में अपने आठ पूर्वांग कम एक लाख पूर्व तक दीक्षा पर्याय का पालन किया। इनकी मूर्ति पर कपि का लांछन होता है।

Sumatinatha | सुमतिनाथ

इनका जनम महाराजा मेघ एव रानी मंगलावती के यहाँ विनीता नगरी में चैत्र सुदी 11 को हुआ। इनका निर्वाण सम्मेदशिखरजी
पर चैत्र सुदी 11 को हुआ। इनके गणधरों की संख्या 100 मानी जाती है।

40 लाख पूर्व की आयु में बारह पूर्वाग कम एक लाख पूर्व तक दीक्षा के बाद, प्रवचन करते रहे। निर्वाण तिथि चैत्र शुक्ल नवमी श्वेताम्बर संप्रदाय में मानी जाती है।

इनकी मूर्ति पर चकवा (हववेम) पंछी का लांछन होता है।

Padmaprabha or Padmaprabhu | प्द्मप्रभ

इनका जन्म कौशम्बी नगरी के महाराजा धर एवम्‌ रानी सुसीमा के यहाँ कार्तिक सुदी 13 में हुआ। आपका निर्वाण सम्मेदाचल पर फाल्गुन वदी 4 को हुआ ऐसा दिगम्बर सम्प्रदाय मानता है।

श्वेताम्बर संप्रदाय मंगसिर वदी 11 के दिन चित्रा नक्षत्र पर हुआ ऐसा मानता है। इनके 107 गणधर थे। तीस लाख पूर्व की आयु में कुछ कम एक लाख पूर्व तक चारित्र धर्म का पालन कर निर्वाण पाया।

इनकी मूर्ति पर पदम्‌ का लांछन होता है।

Supaswanath | सुपा्श्वनाथ

वाराणसी नगरी के महाराजा प्रतिष्ठसेन की रानी पृथ्वी के यहाँ से ज्येष्ठ सुदी 12 को हुआ। उनका निर्वाण सम्मेदाचल पर फाल्गुन
वदी 7 को हुआ।

उनके 95 गणधर थे। इनकी मूर्ति पर साथियाँ या स्वस्तिक का लांछन होता है।

Chandraprabh | चंद्रप्रभ

इनका जन्म पोष की 11 को महाराज महासेन की रानी सुलक्षणा के यहाँ चंद्रपुरी में हुआ। इनका निर्वाण सम्मेदाचल पर फाल्गुन सुदी 7 को हुआ। इनके 93 गणधर थे जिन में श्री दत्त प्रमुख थे।

कुल आयु दस लाख पूर्व थी उसमें एक लाख पूर्व को कुछ कम तक उन्होंने चारित्र पर्याय का पालन किया। इनकी मूर्ति पर चंद्र (चन्द्रमा) का ल्रांछन होता है।

Pushpadanta | पुष्पदंत

इन्हें कुछ ग्रन्थकारों ने सुविधिनाथ नाम भी प्रदान किया है। इनका जन्म मगसिर सुदी 1 को काकन्दी नगरी के महाराज सुग्रीव तथा महारानी जयरामा से हुआ।

इनका निर्वाण सम्मेदाचल पर्वत पर भादो सुदी 8 को हुआ। इनके 88 गणधर थे जिनमें बारह प्रमुख थे। कहा जाता है कि
सुविधिनाथ के बाद साधुक्रम का विच्छेद हो गया।

श्रावक लोग इच्छानुसार दान आदि धर्म का उपदेश देने लगे। सम्भव है यह काल ब्राहमण संस्कृति के प्रचार-प्रसार का प्रमुख समय रहा हो। इनकी मूर्ति पर मगर का लाांछन होता है।

Shitalanatha | शीतलनाथ

भद्दिल्ल के राजा दृढरथ एवम्‌ रानी नन्दादेवी से इनका जन्म माघ वदी 12 को हुआ। ऐसी कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह भदिल्लपूर आज मध्यप्रदेश के विदिशा के पास है।

वही कुछ विद्वान यह स्थान झारखण्ड में सम्मेदाचल के पास है ऐसा मानते हैं। इनका निर्वाण सम्मेदाचल पर्वत पर आश्विन वदी 8 को हुआ।

इनके 8। गणधर माने जाते हैं। इनकी मूर्ति पर श्रीवृक्ष का लांछन होता है।

Shreyansanath | श्रेयांसनाथ

वाराणसी निकट सिंहपुरी में राजा विष्णु एवम्‌ रानी नन्दा के यहाँ फाल्गुन वदी 11 को जन्म हुआ। इनका निर्वाण सम्मेदाचल पर्वत पर सावन सुदी 15 को हुआ।

आपके गणधर 76 थे। आपकी पूर्ण आयु चौरासी लाख पूर्व की थी। इनकी मूर्ति पर गेंडे का लांछन होता है।

Vasupujya | वासुपूज्य

आपका जन्म चम्पानगरी के राजा वसुपुज्य एवम्‌ रानी जयादेवी से फाल्गुन वदी 14 को हुआ। आपका निर्वाण चम्पापुरी में भादो सुदी 14 पर हुआ।

आपके गणधरों की संख्या 66 थी। यह चम्पानगरी भारत में न होकर वियतनाम में थी ऐसी धारणा कुछ विद्वानों की है। यह तो
सुनिश्चित है कि इनके पांचो कल्याणक – गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान चम्पानगरी में ही हुए है, ऐसा सभी संप्रदाय मानते हैं।

सम्मेदाचल से भूप्रादेशिक दूरी के कारण यह हुआ होगा। वैसे तो काल दोष से उनका जन्मस्थान और निर्वाणस्थान नियम से बाहर के माने जाते हैं। इनकी मूर्ति पर भैंसा का लांछन होता है।

Vimalanatha | विमलनाथ

इनका जन्म कम्पिलपुरी के राजा कृतवर्मा एवम्‌ रानी जय श्यामा के यहाँ कुक्षी से माघ सुदी 4 को हुआ। इनका निर्वाण सम्मेदाचल पर्वत पर आषाढ वदी 8 को हुआ।

आपकी कुल आयु 60 लाख पूर्व की थी। उसमें से 5 लाख पूर्व जन-जन के सेवा में धर्म प्रचार का कार्य करनें में व्यतीत
की। आपके गणधरों की संख्या 55 थी।

इनकी मूर्ति पर सूकर का लांछन होता है।

Anantanatha | अनंतनाथ

इनका जन्म अयोध्या नगरी के महाराजा सिंहसेन और रानी सर्वयशा के यहाँ ज्येष्ठ वदी 12 को हुआ। आपका निर्वाण चैत्र वदी 30 को सम्मेदाचल पर हुआ।

आपकी कुल आयु 30 लाख पूर्व थी। उसमें से तीन पूर्व कम सात लाख पूर्व तक तपकल्याणक से मोक्ष कल्याण के माध्यम से
गुजारे थे।

आपके गणधर पचास थे। इनकी मूर्ति पर सेही का लांछन होता है। श्वेतांबर संप्रदायानुसार बाज लांछन माना जाता है।

Dharmanatha | धर्मनाथ

इनका जन्म रत्नपुर नगरी के महाराजा भानु एवम्‌ महारानी सुप्रभा के यहाँ माघ सुदी 13 में हुआ। आपका निर्वाण ज्येष्ठ सुदी 4 को
सम्मेदाचल पर्वत पर हुआ।

आपकी कुल आयु दस लाख पूर्व में से दो कम ढाई लाख पूर्व जिन धर्म प्रसार में व्यतीत हुओ। आपके 43 गणधर थे। इनकी मूर्ति पर वज्र दण्ड का लांछन होता है।

Shantinatha | शान्तिनाथ

इनका जन्म हस्तिनापुर के महाराजा विश्वसेन की रानी ऐरा से ज्येष्ठ वदी 14 को हुआ। आपका निर्वाण ज्येष्ठ वदी 14 को
सम्मेदाचल पर हुआ।

आपकी कुल आयु एक लाख पूर्व की थी। त्यागी पर्याय में एक पूर्व कम पच्चीस हजार पूर्व व्यतीत किए। इनकी मूर्ति पर
मृग का लांछन होता है।

Kunthunath | कुंथुनाथ

इनका जन्म वैशाख सुदी 1 को हस्तिनापुर के महाराजा सुर व महारानी श्रीकान्ता की कुक्षी से हुआ। आपका निर्वाण वैशाख सुदी 1 को सम्मेदाचल पर्वत पर हुआ।

आपकी कुल आयु 95 हजार पूर्व की थी। उसमें से 23 हजार 750 पूर्व चक्रवर्ती पद पर रहे। शैशव और राजा की अवस्था में आधी आयु बिताने के बाद 23 हजार 750 पूर्व चारित्र साधना में बिताए।

आपके स्वयम्भू आदि कुल 35 गणधर थे। इनकी मूर्ति पर बकरा (अज) का लांछन होता है।

Aranath | अरहनाथ

इनका जन्म हस्तिनापुर के महाराजा सुदर्शन की महारानी मित्रसेना से मंगसिर सुदी 14 को हुआ। आपका निर्वाण सम्मेदाचल पर्वत पर चैत्र वदी 30 को हुआ।

आपकी कुल आयु 84 हजार पूर्व की थी। तीन कम इक्कीस हजार पूर्व केवली चर्या में विचरण कर के जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया। आपके 33 गणधर थे। उनमें कुंभ प्रमुख गणधर थे।

इनकी मूर्ति पर मीन का लांछन होता है। श्वेतांबर संप्रदायानुसार नंदयावर्त लांछन माना जाता है।

Mallinatha | मल्लीनाथ

आपका जन्म राजधानी मिथिला के महाराजा कुम्भ के यहाँ एवं महारानी प्रभावती देवी के गर्भ से मंगसिर सुदी 11 को हुआ।

आपका निर्वाण फाल्गुन वदी 5 को हुआ। आपकी कुल आयु 55 हजार पूर्व की थी। 100 पूर्व कम 55 हजार पूर्व आयु चारित्र पालने में व्यतीत की।

श्वेताम्बर संप्रदाय के साहित्य में इन्हें स्त्री पर्याय में माना है। इनके 28 गणधर थे। जिसमें प्रमुख गणधर भिषक्‌ था। इनकी मूर्ति पर कुम्भ (घड़ा) का लांछन होता है।

Munisuvratanatha | मुनिसुव्रतनाथ

आपका जन्म राजगृही नगर के महाराजा सुमित्र की महाराणी पद्मावती के कुक्षी से वैशाख वदी 0 को हुआ। आपका निर्वाण फाल्गुन वदी 42 को सम्मेदाचल पर हुआ।

आपकी पूर्ण आयु 30 हजार पूर्व की थी। उसमें से साढे सात हजार पूर्व चारित्र आराधना में व्यतीत हुए। इनके 8 गणधर थे। इनकी मूर्ति पर कछुआ का लांछन होता है।

Naminatha | नमिनाथ

आपका जन्म आषाढ वदी 10 को मिथिला नगरी के महाराज विजय एवम्‌ महारानी वर्मिल्रा की कुक्षि में हुआ। आपका निर्वाण वैशाख वदी 14 को सम्मेदशिखर पर्वत पर हुआ।

आपकी कुल आयु 10 हजार पूर्व की थी, उसमें से नव मास कम ठाई हजार पूर्व केवली चर्या में व्यतीत किए। आपके सत्रह (17) गणधर थे।

मिथिला के नमि राजर्षि और तीर्थंकर नमि दो भिन्‍न व्यक्ति है। नाम साम्यता से भ्रम हो सकता है। इनकी मूर्ति पर नीलपद्म का लांछन होता है।

Neminatha, Nemi or Arishtanemi | नेमिनाथ

आपको नेमिनाथ नाम से दिगम्बर जैन संप्रदाय में जाना जाता है। श्वेताम्बरी संप्रदाय में अरिष्टनेमी नाम से विख्यात है। आपका जन्म सावन सुदी 6 को महाराजा समुद्र विजय की धर्मशीला महारानी शिवादेवी के कुक्षि से शौरीपुर (उतर प्रदेश) में हुआ था।

आपका निर्वाण उर्जयंतगिरी (गिरनार) पर्वत पर आषाढ सदी 7 को हुआ। आप यदुकुल वंशी है। श्रीकृष्ण के चचेरे भाई के रुप में हिन्दु साहित्य, जैन तथा बौद्ध साहित्य में उल्लेखित है।

फिर भी इतिहासकार इनको ऐतिहासिक पुरुष नहीं मानते। आपकी कुल आयु एक हजार पूर्व की थी। उसमें कुछ कम सात सौ पूर्व केवली चर्या में व्यतीत किए। इनकी मूर्ति पर शंख का लांछन होता है।

Parshvanatha, Parshva or Parasnath | पाश्वनाथ

इतिहासकार इन्हें ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। आपका जन्म वाराणसी में महाराजा अश्वसेन एवम्‌ महारानी वामादेवी के कुक्षी से पौष वदी 11 को हुआ।

आपका निर्वाण सम्मेदाचल पर सावन सुदी 7 को हुआ। घोर तपश्चरण के साथ उपसर्ग हरण करने के लिए धरणेंद्र पद्मावती की
उपस्थिती से इनका धर्मप्रसार मध्य एशिया से पूर्व एशिया तक फैला था।

नाग कुल की कहानीयाँ बौद्ध में भी फैली हैं। आपकी कुल आयु 100 पूर्व थी। उसमें से 70 पूर्व (कुछ कम) केवली चर्या में व्यतीत किये।

आगम ग्रंथों में इनके वर्णन पर साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इनके 8 गणधर थे, जिनमें शुभदत्त प्रमुख थे। इनकी मूर्ति पर नाग का लांछन (चिन्ह) होता है।

Mahavira or Vardhamana | महावीर

ये वीर, अतीवीर, वर्धमान, सन्‍मति एवम्‌ महावीर नाम से जाने जाते हैं। आपका जन्म वैशाली के राजा सिद्धार्थ एवम्‌ रानी त्रिशलादेवी के कुक्षि से चैत्र सुदी 13 या 599 ईसा पूर्व को हुआ।

आपका निर्वाण दीपावली के समय अर्थात्‌ कार्तिक अमावस्या की सुबह पावापुरी से हुआ। आपकी कुल आयु 72 वर्ष की थी। उसमें से 30 वर्ष आपने जैन धर्म प्रचार प्रसार में व्यतीत किये।

42 वर्ष साधना एवम्‌ 30 वर्ष बाल्यकाल, यौवनावस्था में व्यतीत किए। आपके गणधरों की संख्या 44 थी। उसमें इन्द्रभूति, गौतम प्रमुख थे।

महावीर का निर्वाण 527 ईसा पूर्व हुआ और बुद्ध का निर्वाण 505 ईसा पूर्व में हुआ था। बुद्ध को महावीर के निर्वाणोपरांत उनके मत प्रचार के लिए बाईस साल ज्यादा मिले।

इनकी मूर्ति पर सिंह का लांछन (चिन्ह) होता है। यह लांछन व्यवस्था व्यक्तिपूजा पर जोर देने के लिए नही हैं। वह पूर्वभव की व्यवस्था से जुड़ी है ऐसा जैन साहित्य कहता है।

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महावीर स्वामी की शिक्षाओं और समाज तथा विभिन्न क्षेत्रो में शिक्षाओं से होने वाले प्रभाव को जानने के लिए Teerthankar Mahaveer Swami अवश्य पढ़े।

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