यह स्पष्ट ही है, कि यथार्थवाद (Realism), आदर्शवाद (Idealism) की तरह जड़ तत्त्व का अपलाप नहीं करता। चार्वाक जैसे कुछ यथार्थवादी दर्शन ऐसे तो मिल सकते हैं, जो स्वतंत्र चेतन तत्त्व न मानते हों।

किन्तु ऐसा कोई भी यथार्थवादी दर्शन न मिलेगा, जो जड़ तत्त्व का अपलाप करता हो। तात्परय यह है, कि यथार्थवादी दृष्टिकोण के अनुसार जड़तत्व असत नही है, अपितु सत है। भौतिक तत्त्व आभास नहीं अपितु यथार्थ है।

इस भौतिक या जड़ तत्व का आधार कोई चेतन तत्त्व या विचारधारा नहीं है, अपितु यह स्वयं अपने आप में अपना आधार है। इसका कोई अन्य आध्यात्मिक आश्रय नहीं है, अपितु स्वाश्रित, स्वप्रतिष्ठित है।

क्या सचमुच जड़ या भौतिक तत्त्व है? जिसे में गुलाब का फूल समझ रहा हूँ, या गुलाब के फूल के रूप में देख रहा हूँ, क्या वह सचमुच कोई ऐसी चीज है, जो मेरे ज्ञान सै भिन्न स्वतन्त्र जड़ पदार्थ है?

जिस समय मैं उसे नहीं देखता है, क्या उस समय भी वह फूल उसी रूप में मौजूद है? क्या वह फूल वास्तव में फूल रूप से सत्य या केवल मेरी कल्पना की उत्पत्ति है।

जिसका स्वप्न के पदार्थ की तरह वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं है? उसका आधार सार्वत्रिक चेतना है, या वह स्वयं अपना आधार
है? यथार्थवाद इन सब प्रश्नो को हल करने का प्रयत्न करता है।

उसकी दृष्टि में गुलाब के फूल की उसी तरह स्वतन्त्र सत्ता है, जिस तरह कि मेरी उससे भिन्न स्वतन्त्र सत्ता है।

जिस प्रकार मेरी चैतन्य शक्ति अपने अस्तित्व के लिए फूल की सत्ता पर निर्भर नहीं है। उसी प्रकार फूल की सत्ता भी अपने अस्तित्व के लिए मुझ पर निर्भर नहीं है।

इतना ही नहीं, अपितु किसी अन्य चेतन्य शक्ति, ज्ञान, विचारधारा या आध्यात्मिक तत्त्व पर भी निर्भर नही हैं। वह अपने आप में सत, जड़ रूप, भौतिक रूप, आध्यात्मिक तत्त्व से भिन्न स्वतन्त्र रूप से सत है।

उसकी सत्ता का आधार न कोई वेयक्तिक विचारधारा, और न किसी प्रकार की सार्वभौमिक ज्ञानधारा या सार्वत्रिक आध्यात्मिक सत्ता है।

वह स्वयं सत, स्वयं यथार्थ, स्वयं तत्त्व है। उसका किसी अन्य तत्त्व से सम्बन्ध हो सकता है, वह किसी ज्ञान के लिए ज्ञेय बन सकता है, किन्तु उसकी सत्ता या अस्तित्व किसी पर निर्भर नहीं है।

वह अपने कारणों से उत्पन्न होता है, और ज्ञान अपने कारणों से उत्पन्न होता है। चेतन और जड़ में ज्ञाताज्ञेय सम्बन्ध हो सकता है, उत्पाद्योत्पादक सम्बन्ध नही।

इन सब के आधार पर यह कहना अनुचित नहीं कि भौतिक पदार्थों की ज्ञान से भिन्न स्वतन्त्र सत्ता है। जिस प्रकार आध्यात्मिक तत्त्व की सत्ता का कोई अन्य आधार नहीं है, किन्तु वह स्वयं सत् है।

ठीक उसी प्रकार जड़ या भौतिक तत्त्व भी अपनी सत्ता के लिए किसी दूसरे तत्त्व का मुंह नहीं ताकता। वह स्वयं सत, स्वतन्त्र, अपने बल पर टिका हुआ है। सामान्य रूप से यथार्थवाद का यही हृष्टिकोण है।

यह भौतिक तत्त्व, एक है या अनेक है, उसका ज्ञान और आत्मा के साथ क्या सम्वन्ध है। अनेक होने पर उनका परस्पर क्या सम्बन्ध है, श्रात्मा भौतिक तत्त्व से भिन्न एक स्वतन्त्र पदार्थ है या केवल उसी का परिणाम है।

अनेक समस्याओ को सुलझाने के लिए यथार्थवादियों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का आश्रय लिया है। अब हम इन दृष्टिकोशों को समझने का प्रयत्न करेंगे।

Thoughts behind Realism | यथार्थवादी विचारधाराएँ

सामान्य रूप से आदर्शवाद (Idealism) के तीन भेद है।

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1 जाड़ाद्वैतवाद

2 द्वैतवाद

3 नानार्थवाद

जाड़ाद्वैतवाद

जाड़ाद्वैतवाद केवल एक तत्त्व स्वीकार करता है। वही तत्त्व जगत का मुख्य कारण है। चैतन्य आदि अन्य जितने भी तथाकथित तत्त्व हैं, उसी तत्त्व का रूपान्तर मात्र हैं।

प्रारंभिक ग्रीक दार्शनिक थेलिस, एनाक्सिमेनेस, हेराक्लिटस एक ही तत्त्व में विश्वास करते थे। थेलिस केवल अप तत्त्व को प्रधान मानते थे। उनकी दृष्टि में अन्य सारे पदार्थ उसी के रूपांतरण मात्र है।

एनाक्सिमेनेस ने वायु को प्रधान तत्त्व माना। इसी प्रकार हेराक्सिटस की दृष्टि में तेज ही सब कुछ है। आत्मा भी तेज का ही एक रूप है।

एनाक्सिमेनेस ने सामान्य जड़मात्र स्वीकार किया। उन्होंने उस सामान्य तत्त्व को विशेष नाम न देकर जड़ या भूतसामान्य के रूप में ही रखा।

द्वैतवाद

द्वैतवाद इस सिद्धान्त को न मानकर कुछ आगे बढ़ता है, और जड़ तत्त्व के साथ एक चेतन तत्त्व भी जोड़ देता है। उसकी दृष्टि में
जगत में दो मुख्य तत्त्व होते है।

एक जड़ और दूसरा चैतन्य जितने भौतिक पदार्थ हैं, सभी जड़ तत्त्व के अन्तर्गत आ जाते हैं। जितना आध्यात्मिक तत्त्व है, सारा चैतन्य के अन्दर आ जाता है।

ग्रीक दाशनिक एनाक्सॉगोरस ने जड़ तत्त्व के साथ-ही-साथ आत्म- तत्त्व भी स्वीकृत किया। जिसे उन्होंने नूस ( Nous) कहा है। गति और परिवर्तन का मुख्य कारण यही नूस है, ऐसा उन्होंने प्रतिपादित किया है।

एम्पिडोकल्स के विषय में थोड़ा सा मतभेद है। फिर भी यह निश्चित है कि उसने राग और द्वेष नामक तत्त्व की सत्ता स्वीकृत की। एरिस्टोटल को भी द्वैतवादी कह सकते है।

मध्यकालीन दार्शनिक धारा तो द्वैतवाद के जल से ही प्रवाहित होती है। भारतीय दर्शन में सांख्य, मीमांसा द्वैतवाद के पक्के समंथक हैं। नानार्थवाद तत्त्व की संख्या को दो तक ही सीमित नहीं रखता।

उसकी दृष्टि दो से आगे बढ़ती हुई असंख्य और अनन्त तक पहुँच जाती है। बाद के ग्रीक दार्शनिक डेमोक्रिट्स आदि परमाणुवादी नानार्थवाद के अन्तर्गत आते है।

नानार्थवाद

नानार्थवादी अनेक तत्त्वों को अन्तिम सत्य मानते है। वे एक या दो तत्त्वों को मुख्य न मानकर अनेक तत्त्वों को मुख्य और स्वतन्त्र मानते हैं। सभी तत्व अपने आप में पूर्ण और स्वतन्त्र होते हैं।

उन्हें अपनो पूरांता या सत्ता के लिए दूसरे तत्त्व पर निर्भर नहीं रहना पड़ता । लाइवनित्स नानाथंवादी तो थे, किन्तु भौतिकवाद का कट्टर विरोधी भी थे, अतः उसे हम यथार्थवाद की दृष्टि से नानार्थवादी नहीं कह सकते।

उनके अनन्त मोनाड (Infinite Monads) आध्यात्मिक प्रकृति के थे। अतः हम उसे आध्यात्मिक नानार्थवादी कह सकते हैं।

Indian Realism | भारतीय यथार्थवाद

भारतीय परम्परा में चार्वाक, जैन, हीनयान बौद्ध, वैशेषिक, नैयायिक आदि दार्शनिक विचारधाराएँ नानार्थवादी कही जा सकती हैं।

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इस प्रकार संक्षेप में यथार्थवाद के तीनों दृष्टिकोणों को समझ लेने के बाद भारतीय यथार्थवादी विचारधारा को जरा अधिक स्पष्ट
करने का प्रयत्न करते हैं ।

मीमांसा के अनुसार ज्ञान और ज्ञेय भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। ज्ञेय के अभाव में ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हो सकता। यह ज्ञेय तत्त्व जब
इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध होता है, तभी ज्ञान उत्पन्न होता है ।

प्रभाकर और कुमारिल दोनों आचार्यों ने ज्ञान और ज्ञेय के इस सम्बन्ध को माना है, और अपनी – अपनी कृतियों में इस सिद्धान्त का पूर्ण समर्थन किया है।

सांख्य दर्शन स्पष्टरूप से दो तत्त्व मानता है। ये दोनों तत्त्व पुरुष और प्रकृति अपने आप में सत हैं। दोनों शाश्वत हैं, और एक दूसरे से स्वतन्त्र है। पुरुष की सत्ता प्रकृति पर निर्भर नहीं है, और प्रकृति की सत्ता पुरुष से भिन्न है।

पुरुष न तो वास्तव में बद्ध होता है, और न मुक्त। संसार का जितना भी प्रपंच और खेल है, सब प्रकृति की ही माया है। पुरुष तो एक द्रष्टामात्र है, जो चुपचाप सब कुछ देखा करता है। वह न तो कुछ करता है, न वास्तव में कुछ भोगता है।

प्रकृति जड़ है, और पुरुष चित है। प्रकृति से महत, महत से अहंकार, अहंकार से दस इन्द्रियाँ, मन और पाँच तन्मात्राएँ, और इन सोलह में से पाँच तन्मात्राओं से पांच भूत। इस प्रकार एक ही प्रकृति से सारे संसार की उत्पत्ति होती है।

रामानुज भी चित और जड़ तत्त्व दोनों को स्वतंत्र मानते है। चित ज्ञान का आश्रय है। ज्ञान और चित दोनों का शाश्वत सम्बन्ध है।

जड़ तत्त्व तीन भागों में विभक्त है। पहला वह जिसमें केवल सत्त्व है। दूसरा जिसमें तीनों गुण सत्त, रज और तमस है। तीसरा वह, जिसमें एक भी गुण नही है। यह तत्त्व नित्य है, ज्ञान से भिन्न है, और चिंत से स्वतंत्र है। यह परिवर्तनशील है।

यद्यपि रामानुज विशिष्टद्वैत वादी है, किन्तु वह यह कभी नहीं मानते कि जड़ और चेतन किसी समय ब्रह्म में मिलकर एक रूप हो जाएँगे। दोनों तत्त्व हमेशा स्वतन्त्र रूप से जगत में रहेंगे।

इस दृष्टि से दोनों तत्त्वों का आधार ब्रह्म भले ही हो, किन्तु दोनों कभी भी एक रूप न होंगे। अतः रामानुज को यंथार्थवादी कहना उचित ही है।

मध्व तो स्पष्ट रूप से द्वैतवादी है। वह रामानुज की तरह विशिष्टद्वैत में विश्वास नहीं रखते। उनकी दृष्टि में जड़ और चेतन दोनो सर्वथा स्वतन्त्र एवं भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। उनका कोई सामान्य आधार नहीं है।

वे अपने आप में पूर्ण स्वतन्त्र एवं सत है। वे ब्रह्म या अन्य किसी भी तत्त्व के गुण नहीं है, अपितु स्वयं द्रव्य है।

न्याय और वैशेषिक यथार्थवादी हैं, इसमें तनिक भी संशय नही। वैशेषिक दर्शन द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव, इस प्रकार सात पदार्थों को यथार्थ मानता है। नैयायिक लोग प्रमाण प्रमेय आदि सोलह पदार्थ मानते है।

भारतीय फिलोसोफी के विभिन्न मतों को जानने के लिए भारतीय दर्शन (Indian Philosophy) अवश्य पढ़े।

Realism in Buddhism | बौद्ध यथार्थवाद

हीनयान बौद्ध विचारधारा के दो भेद वैभाषिकऔर सौत्रान्तिक है। वैभाषिक सर्वास्तिवादी है। सर्वास्तिवादी का अर्थ ‘सब कुछ ‘ है। यहाँ पर सब कुछ से तात्पर्य जड़ और चैतन्य से है। आन्तरिक और बाह्य दोनों तत्त्व ज्ञान और जड़ रूप से सत है।

ये नित्य न होकर अनित्य हैं, अर्थात्‌ स्थायी न होते हुए क्षणिक है। सौत्रान्तिक भी यही मानते है, कि ज्ञान और जड़ पदार्थ दोनों ही क्षणिक है।

वैभाषिक और सौत्रान्तिक में मुख्य भेद यह है, कि वेभाषिक बाह्य अर्थ को सीधा प्रत्यक्ष मान लेता है, जबकि सौत्रान्तिक की मान्यता के अनुसार ज्ञान के आकार से बाह्य अर्थ का अनुमान लगाया जाता है।

अर्थ के अनुसार ज्ञान आकार लेता है, और उस आकार से अर्थ का ज्ञान होता है। अर्थ का ज्ञान सीधा अर्थ से नहीं होता, अपितु तदाकार बुद्धि से होता है।

दूसरे शब्दों में कहा जाय तो वैभाषिक की मान्यता के अनुसार ज्ञान, बुद्धि या चेतना निराकार है, जबकि सौत्रान्तिक उसे साकार मानता है। जैसा पदार्थ होता है, वैसा ही बुद्धि में आकार आ जाता है। उसी आकार से हमें बाह्य पदार्थ के आकार का ज्ञान होता है।

वैभाषिक की धारणा के अनुसार बाह्य पदार्थ का सीधा प्रत्यक्ष होता है। सौत्रान्तिक के मतानुसार बाह्य पदार्थ का सीधा प्रत्यक्ष न होकर बुद्धि के आकार के द्वारा उसका ज्ञान होता है। वैभाषिक का पदार्थ ज्ञान प्रत्यक्ष, और सौत्रान्तिक का पदार्थ ज्ञान परोक्ष है।

वैभाषिक और सौत्रान्तिक दोनों ही बाह्य अर्थ की स्वतंत्र सत्ता में विश्वास रखते हैं, जो कि यथार्थवाद के लिए आवश्यक है।

Realism of Charvaka | चार्वाक का यथार्थवाद

चार्वाक पूर्ण रूप से जड़वादी है। वह चेतना या आत्मा नामक भिन्न तत्त्व नही मानते। जिसे हम लोग आत्मा कहते हैं, वह वास्तव
में जड़ तत्त्व से भिन्न नहीं है, अपितु उसी का रूपान्तर है। जगत चार भूतों की ही रचना है।

ये चार भूत अन्तिम सत्य हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कोई स्वतन्त्र तत्त्व या सत्य नही है। ये चार भूत पृथ्वी, अप, तेज और वायु है। इन चार भूतों का एक विशिप्ट संयोग आत्मोत्तत्ति का कारण है।

यद्यपि इन चारों तत्त्वों में भिन्न-भिन्न रूप से चेतना नहीं है, तथापि जिस समय ये चारों तत्त्व एक विशिष्ट रूप में एकत्र होते हैं। उस समय उनसे चेतना उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार चेतना भूत से भिन्न नहीं है, अपितु भौतिक है।

चार्वाक दर्शन का यह विश्वास है, कि दुनियाँ में ऐसी कोई चीज नहीं है, जो न भूत हो न भौतिक हो। प्रत्येक पदार्थ या तो भ्रूत या भौतिक है। जो न तो भूत है न भौतिक ही है वह केवल असत है, अभाव है।

चार्वाक की इस मान्यता को दृष्टि में रखते हुए हम उसे जड़ाद्वैतवादी कह सकते है, किन्तु यह जड़ाद्वैतवाद ग्रीक दाशनिक थेलिस, एनाक्सिमेनेस, हेराक्लिटस आदि के जैसा न होकर नानार्थवाद के जैसा है।

दर्शन अथवा फिलोसोफी के स्वरुप एवं उद्देश्य के विस्तृत अध्ययन हेतु दर्शन का स्वरुप ( Darshan ) को भी पढ़े। इसकी उत्पत्ति से सम्बंधित कारणों को समझने हेतु फिलोसोफी (Philosophy) पर जाये।

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