आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र और मुक्त बनाया जा सकता है। सारांश यह है कि तीर्थकरत्व के गौरव से युक्त वे महापुरूष होते हैं, जो समस्त विकारों पर विजय पाकर जिनत्व को प्राप्त कर लेते हैं।
जो कैवल्य प्राप्त कर निर्वाण के अधिकारी बनते हैं। तीर्थकर (Teerthankar) अपनी इसी सामर्थ्य के साथ जगत् के अन्य प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
मानव जाति को मोक्ष का मार्ग बताकर उस पर अग्रसर होने की प्रेरणा और शक्ति भी प्रदान करते हैं। जैन धर्म की मूल सिद्धान्त का प्रचार एवं प्रसार करने वाले को तीर्थंकर के नाम से उच्चारित किया जाता है।
तीर्थंकर वह व्यक्ति है, जिसने अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। अपनी इच्छाशक्ति के बल पर जीवन, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के चक्र पर पूर्ण अधिकार कर कालचक्र से स्वयं को मुक्त किया एवं दूसरों के लिए भी मार्ग प्रशस्त किया।
जैन धर्म एक प्राचीन भारतीय धर्म है, जो सभी जीवित प्राणियों को अनुशासित अहिंसा के माध्यम से आध्यात्मिक शुद्धता और ज्ञान की शिक्षा देता है। जैन तीर्थंकरों के जीवन का उद्देश्य आत्मा की मुक्ति प्राप्त करना है।
तथ्यों के आधार पर इसे सबसे प्राचीन धर्म भी माना जाता है। इसके बारे में अधिक जानने के लिये जैन धर्म (About Jainism) पर जाये।
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Teerthankar Definition | तीर्थकर और तीर्थंकरत्व
यह शब्द सर्वप्रथम कब एवं किस रूप में प्रचलित हुआ था, यह खोजना तो इतिहास का विषय हैं, किन्तु प्राचीन आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं के उक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट होता हैं कि तीर्थकर शब्द अति प्राचीन है।
यद्यपि आज यह शब्द जैन धर्म का एक परिभाषिक शब्द है, किंतु प्राचीनकाल में सभी धर्मप्रणेता तीर्थंकर कहे जाते थे। बौद्ध साहित्य में तीर्थकर शब्द कई स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है।
तीर्थंकर एक परिभाषित शब्द है, जिसका भाव है – धर्म-तीर्थ को चलानेवाला अथवा धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक। तीर्थ का अर्थ है आगम और उस पर आधारित चतुर्विध संघ; जो आगम और चतुर्विध संघ का निर्माण करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं।
तीर्थंकर शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया हैं-
“तरन्ति संसारमहार्णवं॑ येन तत् तीर्थम्”
अर्थात् जिसके द्वारा संसार सागर से पार होते हैं, वह तीर्थ है। इसी तीर्थ के तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थ शब्द का एक अर्थ घाट भी
होता है।
तीर्थकर सभी जनों को संसार समुद्र से पार उतारने के लिये धर्म रूपी घाट का निर्माण करते हैं। तीर्थ का अर्थ पुल या सेतु भी होता है। कितनी ही बड़ी नदी क्यों न हो, सेतु द्वारा निर्बल से निर्बत व्यक्ति भी उसे सुगमता से पार कर सकता है।
तीर्थकर संसाररूपी सरिता को पार करने के लिए धर्म-शासनरूपी सेतु का निर्माण करते हैं। इस धर्मशासन के अनुष्ठान द्वारा आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र और मुक्त बनाया जा सकता है।
आचार्य प्रभाचन्द्र ने लिखा है,
“तीर्थमागमः तदाधारसंघश्च“
अर्थात् जिनेन्द्र कथित आगम तथा आधार साधुवर्ग तीर्थ है। तीर्थ शब्द का अर्थ घाट भी होता है। अतएव “तीर्थ करोतीति तीर्थकर” का भाव यह होगा कि जिनकी वाणी के द्वारा सँसार सिंधु से जीव तिर जाते हैं, वे तीर्थ के कर्त्ता तीर्थंकर कहे जाते हैं।
सरोवर में घाट बने रहते हैं, उस घाट के मनुष्य सरोवर के बाहर सरलतापूर्वक आ जाता है। इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् के द्वारा प्रदर्शित रत्नत्रय पथ का अवलम्बन लेने वाला जीव संसार-सिंधु में न डूब कर चिन्तामुक्त हो जाता है।
वर्तमान में चौबीस तीर्थकर हुए है और भविष्य में भी चौबीस तीर्थंकर होंगे। यहाँ वर्तमानकालीन चौबीस तीर्थकरों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने हेतु (24 Teerthankar Introduction) पर जाये।
Teerthankar Vs Avatar | तीर्थंकर और अवतार में भेद
अवतारवादी परम्परा के अनुसार जब-जब जगत् में अनाचार की अति होती है, दुराचारी का आतंक बढ़ता है, धर्म और धर्मात्मा पर संकट आता है।
तब परम सत्ता का धारी ईश्वर किसी न किसी रूप में अवतरित होता है, और सज्जनता और सज्जनों की तथा धर्म और धर्मात्मा की रक्षा करता है। वह दुराचार और दुराचारियों का विनाश करता है। तीर्थकरों के साथ यह बात नहीं है।
जैन धर्म के अनुसार तीर्थकर किसी के अवतार नहीं होते। वस्तुतः न तो वे ईश्वरीय अंश है, न ही ईश्वर के प्रतिनिधि। यह तो मनुष्य ही है, जो स्व-अर्जित पुरुषार्थ के बल पर वंदनीय स्थान प्राप्त करते हैं।
जैन धर्म में ऐसे किसी ईश्वर की मान्यता ही नहीं जो जगत्-कर्ता, जगत्-पालक और जगत्-संहार का कार्य करता हो।
जैनधर्म ऐसी किसी भी बाहय शक्ति को स्वीकार नही करता, जो हमें पुरस्कृत या दण्डित करता हो, जिसके सहारे हमारा संहार या संपोषण होता हो। जैनधर्म में तो सर्वोपरि महत्त्व मनुष्य का ही हैं।
वह अपनी साधना के शिखर पर पहुँच कर और अपने मन की पवित्रता का आश्रय पाकर स्वयं ही तीर्थकरत्व को प्राप्त हो जाता है। वस्तुत, मनुष्य अनन्त क्षमताओं का कोष हैं।
उसमें ही ईश्वरत्व का वास है, किन्तु उस पर सांसारिक वासनाओं, मोह-माया और कर्मों का ऐसा सघन आवरण पड़ा है कि वह अपनी सशक्तता और महानता से परिचित ही नहीं हो पाता।
जब मनुष्य अपनी आत्मशक्ति को पहिचानकर इन आवरणों अथवा बाधाओं को दूर कर लेता है, तो मनुष्यत्व के चरम शिखर पर पहुँच जाता है।
सर्वथा निर्दोष, निर्विकार और शुद्धता की स्थिति प्राप्त कर मनुष्य ही सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, ईश्वर, परमात्मा, शुद्ध और बुद्ध कहा जाता है।
तीर्थकर इस दृष्टि से भी अवतारों से भिन्न होते हैं कि उनका सामर्थ्य स्वर्जित होता है, किसी पूर्व महापुरुष की प्रतिच्छाया अथवा प्रतिरूप वे नहीं होते।
किसी राज परिवार में जन्म लेकर, वैभव-विलास में जीवन व्यतीत करते हुए एक दिन कोई अवतार हो जाये-ऐसा तो हो सकता है, हुआ भी है, किन्तु तीर्थकरत्व की प्राप्ति सुगम नहीं हुआ करती।
इस हेतु समस्त सुख वैभवों का स्वेच्छा से त्याग करना पड़ता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह की कठोर साधना करनी पड़ती है।
वीतरागी साधु बनकर एकान्त निर्जनों में ध्यान लीन रहरक अनेक कष्टों को समता, सहिष्णुता और धैर्य के साथ प्रतिक्रिया-गरहित होकर झेलना पड़ता है।
तब कर्म बन्धनों से छुटकारा पाकर कोई साधक कैवल्य प्राप्त कर पाता है और इसी का आगामी चरण तीर्थंकर है। तीर्थकर बनना किसी की उदारता अथवा कृपा से नहीं, अपितु आत्म-साधना से ही सम्भव हैं।
Reincarnation of Tirthankara’s | तीर्थंकर का पुनर्जन्म
तीर्थंकर का पुनर्जन्म नहीं होता है वर्तमान कालचक्र में भगवान् ऋषभदेव प्रथम और भगवान् महावीर अन्तिम अर्थात् चौबीसवें तीर्थकर हुए हैं।
जिस प्रकार प्रामाणिक ज्ञान के अभाव में यह एक भ्रान्त धारणा बनी है कि तीर्थकर ईश्वरीय अवतार होते हैं, उसी प्रकार यह भी एक भ्रान्ति है कि तीर्थकरों का पुनः-पुनः आगमन होता है।
यह सत्य है कि प्रत्येक कालचक्र में चौबीस ही तीर्थकर होते हैं, किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि एक काल-चक्र के ही तीर्थकर आगामी काल-चक्र में पुनः तीर्थकर के रूप में जन्म लेते हैं।
तो यह अवतारवाद का ही एक रूप हो जाएगा। अतः तीर्थंकर परम्परा के विषय में यह सत्य नहीं है। प्रत्येक कालचक्र में असाधारण कोटि के मनुष्य अपनी आत्मा का जागरण कर, उसे शुद्ध और निर्विकार बनाकर साधना द्वारा यह स्थान प्राप्त होते हैं।
प्रत्येक बार अलग-अलग मनुष्यों को यह गौरव प्राप्त होता है। तीर्थंकर तो अन्त में निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। उन्हें चिरशान्ति और सुख की स्थिति उपलब्ध हो जाती है। वे अजर अमर, अविनाशी, शुद्ध-बुद और सिद्ध हो जाते हैं।
सिद्धत्व की स्थिति पूर्ण कृतकृत्यता की स्थिति है। इस स्थिति को प्राप्त करने के बार-बार आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। सिद्ध अशरीरी होते हैं, उन्हें पुनः पुनः देह धारण नहीं करनी पड़ती।
फिर इससे इतर एक तीर्थकर का आगामी काल में तीर्थकर बनने के लिये मनुष्य देह धारण करना अनिवार्य हैं। कालचक्र में तीर्थकर मोक्ष प्राप्त कर पूर्वजन्म के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।
मोक्ष अवस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, जबकि कर्मों के कारण ही आत्मा को देह धारण करनी पड़ती हैं कर्ममल उस बीज की भाँति है जो पुनर्जन्म के रूप में अंकुरित हुआ करता है।
इस बीज रूप कर्म को ही जब कठोर तपस्या की अग्रि में भून दिया जाता है तो फिर उसकी अंकुरण शक्ति ही नष्ट हो जाती
है। कर्म नष्ट हो जाते हैं, परिणामतः, आत्मा का जन्म-मरण के बन्धन को छुटकारा हो जाता हे।
अतः तीर्थंकरों के बारे में ऐसा मानना कि उनका पुनः आगमन (Rebirth) होता है भ्रान्ति ही नहीं, मिथ्या भी है।
Teerthankar in Jainism | जैन धर्म में तीर्थंकरो का स्थान
जैन परम्परा में सर्वोपरी उपासनीय देव- अरिहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु नामक पंच परमेष्ठी माने गये हैं। अरिहंत और सिद्ध दोनों ही परमात्मा कहलाते हैं।
अन्तर इतना ही है कि अरिहंत सशरीरी परमात्मा है और सिद्ध अशरीरी परमात्मा है। आयु कर्म शेष रहने के कारण अन्त के चार अघाति कर्म शेष रहते हैं, इनके नष्ट हो जाने पर वे अशरीरी परमात्मा बन जाते है। वे ही सिद्ध कहलाते हैं।
शेष तीन परमेष्ठी- आचार्य, उपाध्याय और साधु साधक दशा में है और उनका लक्ष्य आत्म-साधना द्वारा आत्म सिद्धि प्राप्त कर क्रमश: अन्त और सिद्ध बनना है।
जैन परम्परा में मान्य महामंत्र णमोकार में इन्हीं पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। किसी व्यक्ति विशेष का नामोल्लेख न करके तत्तद गुणों से विभूषित आत्माओं को ही परमेष्ठी माना गया है।
तीर्थंकर अरिहंत में से ही होते हैं। वे धर्म तीर्थ की पुनः स्थापना करते हैं, अतः तीर्थंकर कहलाते हैं। जो साधक किसी जन्म में ऐसी शुभ भावना करता है कि मैं जगत के समस्त जीवों का दुःख निवारण करूँ, उन्हें संसार के दुःखों से छुड़ाकर मुक्त करूँ।
इस प्रकार की भावना के साथ सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करे, उसे तीर्थकर नाम कर्म बन्ध होता है अर्थात वह आगामी जन्म में तीर्थकर बनता है।
सामान्य शब्दों में तीर्थंकर वह व्यक्ति है, जो जैन धर्म के रक्षक एवं आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में अपना सांसारिक जीवन त्याग देता हैं।
जैन धर्म में यह उपाधि उनको मिली है, जिन्होंने अपने तप एवं आत्मबल के द्वारा अपनी समस्त इन्द्रियों को नियंत्रण में कर सच्चे आत्मज्ञान को प्राप्त किया।
अपने आत्म ज्ञान के आधार पर दूसरों के लिए एक तीर्थ या ऐसे स्थान का निर्माण भी किया, जहां वो सब भी अपनी इन्द्रियों तथा इच्छाओं को बस में कर सकते है।
जैन धर्म मान्यता अनुसार यह माना जाता है कि प्रत्येक ब्रह्मांडीय युग में 24 तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक जैन चित्रों में तीर्थंकरों को कायोत्सर्ग अवस्था में अपने शरीर का त्याग करते चित्रित किया जाता है।
Sanskara | तीर्थंकर नाम कर्म संस्कार
तीर्थकर किसी नये धर्म की स्थापना नहीं करते, न वह किसी नये सत्य का उद्घाटन ही करते हैं। वह तो सनातन सत्य का ही प्ररुपण करते हैं। वह धर्म संस्थापक नहीं होते। धर्म तो अनादि निधन है।
अतः तीर्थंकर धर्म नेता है, धर्म संस्थापक नहीं। तीर्थंकर एक क्षेत्र में अपने समय में एक ही होते हैं।
वह तीर्थकर परमात्मा के रूप में जब तक विचरण करते हैं तब तक उपदेश, विहार के माध्यम से भव्य जीवों को प्रवचन सुनाकर ओर दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं।
अपनी आयु पूर्ण हो जाने पर शरीर छोड़कर वही अरिहंत परमात्मा सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं। सिद्ध अवस्था में उनका आत्मा मात्र ही रहता है।
जैन धर्म में तीर्थंकर वही व्यक्ति बनने के लिए सभी 24 तीर्थंकरों को कर्म बंधन से मुक्ति प्राप्त कर ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति तक पहुँचने के लिए 16 अवस्थाओं से गुज़ारना पड़ता है। वे सोलह कारण भावनांए इस प्रकार हैं-
- दर्शन विशुद्धि – सम्यग्दर्शन की प्राप्ति,
- विनय सम्पन्नता – देव, शास्त्र और गुरू तथा रत्नत्रय का हृदय से सम्मान करना,
- शील और ब्रतों का निरतिचार पालन – व्रतों तथा व्रतों के रक्षक नियमों में दोष न लगने देना,
- अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग – निरन्तर सत्य ज्ञान का अभ्यास, चिन्तन, मनन करना,
- संवेग – धर्म और धर्म के फल से अनुराग होना,
- शक्ति के अनुसार त्याग – अपनी शक्ति के अनुसार कषाय का त्याग ममत्व का त्याग तथा आहार, अभय, औषधि और ज्ञान का दान करना,
- शक्ति के अनुसार तप – अपनी शक्ति को न छिपाकर अन्तरंग और बहिरंग तप करना,
- साधु समाधि – साधुओं का उपसर्ग दूर करना तथा समाधि पूर्वक मरण करना,
- वैयावृत्यकरण – व्रती त्यागी और साधर्मी जनों की सेवा करना, दुखी का दुःख दूर करना,
- अरिहंत भक्ति – अरिहंत की हृदय से भक्ति करना,
- आचार्य भक्ति – चतुर्विध संघ के नायक आचार्य की भक्ति करना,
- बहुश्रुत भक्ति – उपाध्याय परमेष्ठी की अक्ति करना,
- प्रवचन भक्ति – तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट जिनवाणी की भक्ति करना,
- आवश्यक अपरिहाणी – छह आवश्यक कर्मों का सावधानी पूर्वक पालन करना,
- मार्ग प्रभावना – जैन धर्म का प्रचार प्रसार करना,
- प्रवचन वात्सल्य – साधर्मी जनों से निश्छल प्रेम करना।
उपरोक्त 16 दशाओं से गुजरने के पश्चात् ही कोई तीर्थंकर अपनी आत्मा को शुद्ध कर सत्य की खोज कर पाता है, जिसके कारण जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्त हो सकता है।
Panch kalyanaka | पंचकल्याणक
पंच का अर्थ है पांच एवं कल्याण का अर्थ है सभी मनुष्यों की भलाई के लिए। प्रत्येक तीर्थंकरों के जीवन में पाँच प्रमुख घटनाएं शामिल होती हैं जो उनके तीर्थंकर बनने के मार्ग को प्रशस्त करती हैं।
Garbh kalyanaka | गर्भ कल्याणक
गर्भ कल्याणक वह क्षण होता है, जब एक तीर्थंकर की आत्मा अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करती है। तीर्थंकर की आत्मा के मानव रूप में आगमन को गर्भ कल्याणक के रूप में मनाया जाता है।
Janm kalyanaka | जन्म कल्याणक
यह वह घटना है जब तीर्थंकर की आत्मा का मानव रूप में जन्म होता है। जन्म कल्याणक का अर्थ है तीर्थंकर की आत्मा का जन्म होना।
Deeksha kalyanaka | दीक्षा कल्याणक
यह वह घटना है, जब तीर्थंकर की आत्मा अपनी सारी सांसारिक संपत्ति को त्याग देती है तथा एक भिक्षु नन बन जाती है।
यह अवस्था केवल पुरुषो के लिए ही है जैन धर्म में क्योंकि दिगंबर जैन नहीं मानते कि एक महिला भी तीर्थंकर बन सकती है या जीवन चक्र से मुक्त हो सकती है।
Kevalyagyan kalyanaka | केवलज्ञान कल्याणक
यह एक ऐसी घटना है, जब तीर्थंकर की आत्मा चार नीच कर्मों को अपने जीवन से पूरी तरह से समाप्त कर देती है, तथा केवलज्ञान (पूर्ण ज्ञान) प्राप्त करती है।
दिव्य स्वर्गदूतों ने तीर्थंकरों के लिए समवसरण स्थापित किया, जहाँ से वह पहला उपदेश देते हैं। यह पूरे जैन धर्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है।
क्योंकि इसके पश्चात् ही कोई तीर्थंकर जैन संघ को बहाल कर सकते हैं तथा शुद्धि एवं मुक्ति के जैन मार्ग का प्रचार कर सकते हैं।
निर्वाण कल्याणक
यह स्थिति तब आती है, जब तीर्थंकर की आत्मा इस सांसारिक भौतिक अस्तित्व से हमेशा के लिए मुक्त हो जाती है एवं आत्मा सिद्ध हो जाती है।
इस दिन, तीर्थंकर की आत्मा चार अघति कर्मों को पूरी तरह से नष्ट कर देती है तथा मोक्ष, शाश्वत आनंद की स्थिति को प्राप्त करती है।
एक तीर्थंकर की आत्मा जब माता के गर्भ में होती है, तब भी उसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान तीन प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं।
त्याग के समय से एक साल पहले, दिव्य स्वर्गदूतों का एक समूह भविष्य के तीर्थंकर को श्रद्धांजलि देने आता है। वे उसे याद दिलाते हैं कि संसार को त्यागने का समय आ रहा है।
जब कोई तीर्थंकर सांसारिक जीवन का त्याग करता है, तो उसे चौथे प्रकार का ज्ञान मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त होता है, जो उसे लोगों के विचारों को जानने में सक्षम बनाता है।
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महावीर स्वामी की शिक्षाओं और समाज तथा विभिन्न क्षेत्रो में शिक्षाओं से होने वाले प्रभाव को जानने के लिए Teerthankar Mahaveer Swami अवश्य पढ़े।
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