जैन परंपरा में स्याद्वाद (Syadvada) अथवा अनेकांतवाद (Many-Sidedness) का प्रमुख स्थान है। यदि कहा जाये की जैन धर्म के मूल सिद्धांतो का उदय अनेकांतवाद के गर्भ से ही हुआ है, तो किंचित भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।
इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक वास्तु में अनंत गुण धर्म समाहित होते है। उसका अच्छा या बुरा, सत अथवा असत, नित्य या अनित्य होना देखने वाले के दृष्टिकोण के सापेक्ष होता है। अतः इसे सापेक्षिक सिद्धांत भी कहते है।
भारत की विभिन्न दार्शनिक विचार धाराओं में समुचित उल्लेख किया गया है। विशेष कर जैन एवं बौद्ध धर्म में, किन्तु जैन दर्शन में ऐसे ही मुख्य आधार माना गया है।
जैन धर्म के प्राचीनतम आगम ग्रंथो में भी इसका उल्लेख किया गया है, इसके बाद ऋंगवेद में भी इसे स्थान प्राप्त है।
जैनदर्शन में इसका का इतना अधिक महत्त्व है कि आज स्याद्वाद जैनदर्शन का पर्याय बन गया है। जैनदर्शन का अर्थ स्याद्वाद के रूप में लिया जाता है।
जहाँ जैनदर्शन का नाम आता है, अन्य सिद्धान्त एक ओर रह जाते हैं और स्याद्वाद या अनेकान्तवाद याद आ जाता है । वास्तव में यह जैन दर्शन का प्राण है। जैन आचार्यों के सारे दार्शनिक चिन्तन का आधार है।
श्रमण भगवान महावीर को केवलज्ञान होने के पहले कुछ स्वप्न आये थे। भगवती सूत्र के अनुसार उन स्वप्नों में से एक स्वप्न इस प्रकार है-‘एक बड़े चित्रविचित्र पंखों वाले पुस्कोकिल को स्वप्न में देख कर प्रतिबुद्ध हुए”।
शास्त्राकार ने चित्रविचित्र पंख वाले पुस्कोकिल पक्षी को स्याद्वाद के प्रतीक के रूप में प्रतिपादित किया है।
वह एक वर्ण के पंख वाला कोकिल नहीं है, अपितु चित्रविचित्र पंख वाला कोकिल है। जहाँ एक ही तरह के पंख होते हैं वहाँ एकान्तवाद होता है, स्याहाद या अनेकान्तवाद नहीं । जहाँ विविध वर्ग के पंख होते हैं, वहाँ अनेकान्तवाद या स्याहाद होता है।
केवलज्ञान भी म्यादादपूर्वक ही होता है। इसे दिखाने के लिए केवलज्ञान होने के पहले यह स्वप्न दिखाया गया है।
महावीर ने इस दृष्टि पर बहुत अधिक जोर दिया, जबकि बुद्ध ने यथावसर उसका प्रयोग विभज्यवाद के रूप में यथानुसार किया। यधपि दोनों का मत इस विषय को लेकर एक ही है।
Definition of Syadvada | स्याद्वाद की परिभाषा
जैन दर्शन के अनुसार एक वस्तु में अनन्त धर्म (गुण) होते है। इन धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों के अनुसार वास्तु का चयन करता है।
वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है, वे सब धर्म वस्तु में ही समाहित हैं। ऐसा नहीं कि व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का पदार्थ पर आरोप करता है।
अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्तधर्मात्मक या अनेकान्तात्मक कही जाती है। अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन करने के लिए ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग करना पड़ता है । ‘स्यात्’ का अर्थ है कथंचित् ।
किसी एक दृष्टि से वस्तु इस प्रकार की कही जा सकती है, तो वही अन्य दृष्टि से उसी वस्तु का वर्णन अथवा गुण भिन्न हो सकता है।
यद्यपि वस्तु में सभी गुण उपस्थित हैं, किन्तु इस समय हमारा दृष्टिकोण इस गुण की ओर है, इस लिए वस्तु एतद्रप प्रतिभासित हो रही है।
वस्तु केवल एतद्रूप ही नहीं है, अपितु उसके अन्य रूप भी हैं, इस सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस ‘स्यात्’ शब्द के प्रयोग के कारण ही हमारा वचन ‘स्याद्वाद’ कहलाता है।
‘स्यात्’ पूर्वक जो ‘वाद’ अर्थात् वचन है-कथन है, वह ‘स्याद्वाद’ है। इसीलिए यह कहा गया है कि अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन ‘स्या द्वाद’ है। स्याद्वाद’ को ‘अनेकान्तवाद’ भी कहते हैं।
इसका कारण यह है कि ‘स्याद्वाद’ से जिस पदार्थ का कथन होता है, वह अनेकान्ता त्मक है। अनेकान्त अर्थ का कथन यही ‘अनेकान्तवाद’ है । ‘स्यात’ यह अव्यय अनेकान्त का द्योतक है, इसीलिए ‘स्याद्वाद’ को ‘अनेकान्त’ कहते हैं।
‘स्याद्वाद’ और ‘अनेकान्तवाद’ दोनों एक ही हैं । ‘स्या द्वाद’ में ‘स्यात्’ शब्द की प्रधानता रहती है। ‘अनेकान्तवाद’ में अनेकान्त धर्म की मुख्यता रहती है ।
‘स्यात्’ शब्द अनेकान्त का घोतक है, अनेकान्त को अभिव्यक्त करने के लिए ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।
जैन-दर्शन ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग अधिक देखने में आता है । जहाँ वस्तु की अनेकरूपता का प्रतिपादन करना होता है, वहाँ सिय’ शब्द का प्रयोग साधारण सी बात है।
अनेकान्तवाद शब्द पर दार्शनिक पुट. की प्रतीति होती है, क्योंकि यह शब्द एकान्तवाद के विरोधी पक्ष को सूचित करता है।
तीर्थंकर किसे कहते है? यह अवतार से कैसे भिन्न होते है? इत्यादि प्रश्नो के उत्तर जानने के लिये Philosophy behind Teerthankar पर जाये।
स्यादवाद के विरोध स्वरुप दिए जाने वाले तर्कों एवं उनके उत्तरो के लिए ‘स्याद्वाद दोष परिहार’ ( Debate On Syadvada ) अवश्य पढ़े।
Many-Sidedness Vs Syadvada | अनेकांतवाद और स्याद्वाद
जैन ग्रन्थों में कहीं स्याद्वाद शब्द आया है तो कहीं अनेकान्तवाद शब्द का प्रयोग हुआ है। दार्शनिको ने इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है, अतः इन दोनों शब्दों के पीछे एक ही अर्थ वस्तु की अनेकान्तात्मकता।
यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्तवाद शब्द से भी प्रकट होती है और स्याद्वाद शब्द से भी। वैसे देखा जाय तो स्याद्वाद शब्द अधिक प्राचीन प्रतीत होता है, क्योंकि आगमो में ‘स्यात ‘ शब्द का प्रयोग अधिक देखने में आता है।
जहाँ वस्तु की अनेकरूपता का प्रतिपादन करना होता है, वहाँ ‘सिय’ शब्द का प्रयोग साधारण सी बात है। अनेकान्तवाद शब्द पर दार्शनिक पुट की प्रतीति होती है, क्योंकि यह शब्द एकान्तवाद के विरोधी पक्ष को सूचित करता है।
जैन धर्म के बारे में अधिक जानने के लिये जैन धर्म (About Jainism) पर जाये एवं इसके मूल सिद्धांतो को जानने के लिये “मूल जैन सिद्धांत (Doctrines of jainism)” पढ़े।
Seven-Valued Logic | स्याद्वाद और सप्तभंगी
सप्तभंगी क्या है ? एक वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रेतिषेध की विकल्पना सप्तभंगी हैं ।’ प्रत्येक वस्तु में कोई भी धर्म विधि और निपेध उभयस्वरूप वाला होता है, यह हम देख चुके हैं।
जब हम अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं तब नास्तित्व भी निषेध रूप से हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। जब हम सत् का प्रतिपादन करते हैं तब असत् भी सामने आ जाता है।
जब हम नित्यत्व का कथन करते हैं उस समय अनित्यत्व भी निषेध रूप से सम्मुख उपस्थित हो जाता है। किसी भी वस्तु के विधि और निषेध रूप दो पक्ष वाले धर्म का बिना विरोध के प्रतिपदन करने से जो सात प्रकार के विकल्प बनते हैं वह सप्तभंगी है।
विधि और निषेधरूप धर्म का वस्तु में कोई विरोध नहीं हैं। वस्तु के अनेक धर्मों के कथन के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। किसी एक धर्म का कथन किसी एक शब्द से होता है।
हमारे लिए यह सम्भव नहीं कि अनेकान्तात्मक वस्तु के सभी धर्मों का वर्णन कर सकें, क्योंकि एक वस्तु के सम्पूर्ण वर्णन का अर्थ है, सभी वस्तुएँ परस्पर सम्बन्धित हैं, अत: एक वस्तु के कथन के साथ अन्य वस्तुओं का कथन अनिवार्य है।
ऐसी अवस्था में वस्तु का ज्ञान या कथन करने के लिए हम दो दृष्टियों का उपयोग करते हैं। इनमें से एक दृष्टि सकलादेश कहलाती है और दूसरी विकलादेश।
सकलादेश का अर्थ है किसी एक धर्म के साथ अन्य धर्मों का अभेद करके वस्तु का वर्णन करना । दूसरे शब्दों में एकगुण में अशेष वस्तु का संग्रह करना सकलादेश है।
उदाहरण के लिए किसी वस्तु के अस्तित्व धर्म का कथन करते समय इतर धर्मों का अस्तित्व में ही समावेश कर लेना सकलादेश है। ‘सस्यादुरूपमेव सर्वम ‘ ऐसा जब कहा जाता हैं तो उसका अर्थ होता है सभी धर्मों का अस्तित्व से अभेद।
अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य जितने भी धर्म हैं सब किसी दृष्टि से अस्तित्व से अभिन्न हैं, अत: ‘कथंचित् सब है ही’ (स्यादस्त्येव सर्वम) यह कहना अनेकान्तवाद की दृष्टि से अनुचित नहीं है।
एक धर्म में सारे धर्मों का समावेश या अभेद कैसे होता है ? किस दृष्टि से. एक धर्म अन्य धर्मों से अभिन्न है ? इसका समाधान करने के लिए कालादि आठ दृष्टियों का आधार लिया जाता है’।
इन आठ दृष्टियों में से किसी एक के आधार पर एक धर्म के साथ अन्य धर्मों का अभेद कर लिया जाता है और इस अभेद को दृष्टि में रखते हुए ही उस घर्म का कथन सम्पूर्ण वस्तु का कथन मान लिया जाता है। यही सकलादेश है।
विकलादेश में एक धर्म की ही अपेक्षा रहती है और शेष की उपेक्षा। जिस धर्म का कथन अभीष्ट होता है वही धर्म दृष्टि के सामने रहता है।
अन्य धर्मों का निषेध नहीं होता, भ्रपितु उनका उस समय कोई प्रयोजन न होने से ग्रहण नहीं होता। यही उपेक्षाभाव है।
सप्तभंगी सकलादेश की आठ दृष्टिया
सकलादेश के आधार पर जो सप्तभंगी बनती है, उसे प्रमाणसम्भंगी कहते हैं। विकलादेश की दृष्टि से जो सप्तमंगी बनती है, वह नयसप्तभंगी है।
काल
जिस समय किसी वस्तु में अस्तित्व धर्म होता है उसी समय अन्य धर्म भी होते हैं । घट में जिस समय अस्तित्व रहताहै, उसी समय कृष्णत्व, स्थूलत्व, कठिनत्व आदि धर्म भी रहते हैं। इसलिए काल की अपेक्षा से अन्य धर्म अस्तित्व से अभिन्न हैं।
आत्मरूप
जिस प्रकार अस्तित्व घट का गुण है, उसी प्रकार कृष्णत्व, कठिनत्व आदि भी घट के गुण हैं। अस्तित्व के समान अन्य
गुण भी घटात्मक ही हैं। अतः आत्मरूप की दृष्टि से अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेद है।
अर्थं
जिस घट में अस्तित्व है उसी घट में कृष्ण॒त्व, कठिनत्व आदि धर्म भी हैं। सभी धर्मों का स्थान एक ही है। अतः अर्थ की दृष्टि से अस्तित्व और अन्य गुणों में कोई भेद नहीं ।
सम्बन्ध
जिस प्रकार अस्तित्व का घट से सम्बन्ध है, उसी प्रकार अन्य धर्म भी घट से सम्बन्धित हैं। सम्बन्ध की दृष्टि से अस्तित्व और इत्रगुण अभिन्न हैं।
उपकार
अस्तित्व गुण घट का जो उपकार करता है वही उपकार कृष्ण॒त्व, कठिनत्व आदि गुण भी करते हैं। इसलिए यदि उपकार की दृष्टि से देखा जाय तो अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेद है ।
गुणिदेश
जिस देश में अस्तित्व रहता है उसी देश में घट के अन्य गुण भी रहते है। घटरूप गुणी के देश की दृष्टि से देखा जाय तो अस्तित्व और अन्य गुणों में कोई भेद नहीं ।
संसर्ग
जिस प्रकार अ्रस्तित्व गुण का घट से संसर्ग है उसी प्रकार श्रन्य गुणों का भी घट से संसर्ग है। इसलिए संसर्ग की दृष्टि से देखने पर अस्तित्व और इतरगुरणों में कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता।
संसर्ग में भेद की प्रधानता होती है और अभेद की अप्रधानता। सम्बन्ध में प्रभेद की प्रधानता होती है ओर भेद की अप्रधानता।
शब्द
जिस प्रकार अस्तित्व का प्रतिपादन है’ शब्द द्वारा होता है उसी प्रकार अन्य गुणों का प्रतिपादन भी है! शब्द से होता है। ‘घट में अस्तित्व है’, ‘घट में कृष्णत्व है’, ‘घट में कठिनत्व है’ इन सब वाक्यों में ‘है’! शब्द घट के विविध धर्मों को प्रकट करता है।
जिस ‘है’ शब्द से अस्तित्व का प्रतिपादन होत्ता है उसी है। शब्द से कष्णत्व, कठिनत्व आदि धर्मों का भी प्रतिपादन होता है। अतः शब्द की दृष्टि से भी अस्तित्व और अन्य धर्मों में अभेद है।
अस्तित्व की तरह प्रत्येक धर्म को लेकर सकलादेश का संयोजन किया जा सकता है।
घट सप्तभंगी
घट के अस्तित्व धर्म को लेकर जो सप्तभंगी बनती है, वह इस प्रकार है:
1 कदाचित घट है।
2 कदाचित घट नहीं है।
3 कदाचित घट है और नहीं है ।
4 कदाचित घट अवक्तव्य है।
5 कदाचित घट है और अवक्तव्य है।
6 कदाचित घट नहीं है और अवक्तव्य है।
7 कदाचित घट है, नहीं है और अवक्तव्य है।
प्रथम भंग विधि की कल्पना के आधार पर है। इसमें घट के अस्तित्व का विधिपूर्वक प्रतिपादन है।
दूसरा भंग प्रतिषेध की कल्पना को लिए हुए है। जिस अस्तित्व का प्रथम भंग में विधिपूर्वक प्रतिपादन किया गया है, उसी का इसमें निषेधपूर्वक प्रतिपादन है। प्रथम भंग में विधि की स्थापना की गई है। दूसरे में विधि का प्रतिषेध किया गया है।
तोसरा भंग विधि और निषेध दोनों का क्रमशः प्रतिपादन करता है। पहले विधि का ग्रहण करता है और बाद में निषेध का। यह भंग प्रथम और द्वित्तीय दोनों भंगों का संयोग है।
चौथा भंग विधि और निषेध का युगपत् प्रतिपादन करता है। दोनों का युगपत् प्रतिपादन होना वचन के सामर्थ्य के बाहर है, अतः इस भंग को अवक्तव्य कहा गया है।
पाँचवाँ भंग में विधि और युगपत् विधि और निषेध दोनों का प्रति-पादन करता है। प्रथम और चतुर्थ के संयोग से यह भंग बनता है।
छठे भंग निषेध और युगपत् विधि और निषेध दोनों का कथन है । यह भंग द्वितीय और चतुर्थ दोनों का संयोग है।
सातवाँ भंग क्रम से विधि और निषेध और युगपत् विधि और निषेध का प्रतिपादन करता है। यह दृतीय और चतुर्थ भंग का संयोग है।
उपरोक्त बातें ही जैन दर्शन का मूल सिद्धांत निर्धारित करती है। वर्तमानकालीन चौबीस तीर्थकरों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने हेतु (24 Teerthankar Introduction) पर जाये।
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