अँग्रेजी शब्द ‘फिलोसोफी’ ( Philosophy ) जो कि दर्शन का पर्यायवाची है, ग्रीक भाषा के दो शब्दों ‘फिलोस’ (Philos) और ‘सोफिया’ (Sofia) से मिल कर बना हैं। फिलोस का अर्थ होता है, प्रेम और सोफिया का अर्थ बुद्धि होता है।
इन दोनों शब्दों को जोड़ने से बुद्धि का प्रेम शब्द बनता है। यहाँ पर बुद्धि शब्द से सामान्य विचारशक्ति या प्राकृतिक बुद्धि
नहीं समझकर विवेक युक्त बुद्धि समझना चाहिए ।
दर्शन या फिलॉसोफी ( Philosophy ) मानव जाति के बौद्धिक क्षेत्र की एक विचित्र उपज है। विचित्र इसलिए कि अन्य ज्ञानधाराओ की अपेक्षा दर्शन का सम्बन्ध हमारे व्यावहारिक जीवन से बहुत कम है।
जीवन को सुव्यवस्थित रूप में व्यतीत करने के लिए दर्शन उतना उपयोगी नहीं है, जितना कि विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र इत्यादि उपयोगी है।
यदि दर्शनशास्त्र के अध्ययन के बिना भी हमारा जीवन चल सकता है, तो फिर दर्शनशास्त्र की आवश्यकता क्यों पड़ी?
यह सत्य है, कि व्यावहारिक जीवन में दर्शन आवश्यक नहीं किन्तु मानव जीवन में अन्य कई ऐसे विषय है, जो व्यावहारिक आवश्यकता ना होते हुए भी आवश्यक है।
इतना ही नहीं इनका मूल्य मानव जीवन में व्यवहारिकता से कही अधिक है। काव्य, कला, दर्शन आदि इसी अव्यवहारिक अंश के भाग है।
ये जीवन के व्यावहारिक अंश को भी कभी-कभी मार्गदर्शन करते हैं। इस दूसरे अंश को हम आध्यात्मिक जीवन ( Spritual Life ) अथवा आंतरिक जीवन (Inner Life) कह सकते हैं।
दर्शन की उत्पत्ति में यही जीवन प्रधान कारण है, ऐसा कहें तो अनुचित न होगा। सामान्यरूप से इतना समझ लेने पर आगे यह देखने का प्रयत्न करेंगे, कि इस जीवन के कौन-कौन से विशिष्ट दृष्टिकोण दर्शन को उत्पन्न करने में सहायक बनते हैं।
उन कारणों को समझ लेने पर आध्यात्मिक जीवन का पूरा चित्र सामने आ जाएगा।
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Reason behind Philosophy | फिलॉसोफी की उत्पत्ति का आधार
सोचना मानव का स्वभाव है। वह किस रूप में सोचता है, यह एक अलग प्रश्न है, किन्तु वह सोचता अवश्य है। जहाँ सोचना
प्रारम्भ होता है, वहीं से दर्शन शुरू हो जाता है।
इस दृष्टि से दर्शन उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव स्वयं। इस सामान्य कारण के साथ-ही-साथ मानव जीवन के आसपास की परिस्थितियाँ एवं उसके परम्परागत संस्कार भी दर्शन की दिशा’का निर्माण करनें में कारण बनते हैं।
प्रत्येक दार्शनिक की विचारधारा इसी आधार पर बनती है, और इन्हीं कारणों की अनुकूलता-प्रतिकुलता के अनुसार आगे बढ़ती हैं।
स्वभाव और परिस्थिति विशेष के कारण ही विभिन्न दार्शनिक विचारधाराश्रों में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोर होते हैं। सोचने के लिए जिस ढंग की सामग्री उपलब्ध होती है।
उसी ढंग से चिन्तन प्रारम्भ होता है। इस सामग्री के विषय में अलग अलग मत हैं। कोई आश्चर्य को चिन्तत का अवलम्बन समभता है, तो कोई संदेह को उसका आधार मानता है।
कोई बाह्य जगत को महत्त्व देता है, तो कोई केवल आत्म-तत्त्व को ही सब कुछ समभता है। इन सब हृष्टिकोणों के निर्माण में मानव का व्यक्तित्व एवं निम्न बाह्य परिस्थितियाँ काम करतीं हैं।
Miracle vs Philosophy | फिलोसोफी और आश्चर्य
कुछ दार्शनिक यह मानते हैं, कि मानव के चिन्तन का मुख्य आधार एक प्रकार का आश्चर्य है। मनुष्य जब प्राकृतिक कृतियों एवं शक्तियों को देखता है। तब उसके हृदय में एक प्रकार का आश्चर्य उत्पन्न होता हैं।
वह सोचते लगता हैं, कि यह सारी लीला कैसी हैं? इस लीला के पीछे किसका हाथ हैं? जब उसे कोई ऐसी शक्ति प्रत्यक्ष रूप से हृष्टि-गोचर नहीं होती, जो इस लीला के पीछे कार्य कर रही हो, तब उसका आश्चर्य और भी बढ़ जाता है।
इस प्रकार आश्चर्य से उत्पन्न हुई विचारधारा क्रमशः आगे बढ़ती जाती है, और मनुष्य नव प्रकार की युक्ति युक्त कल्पनाओ द्वारा उस विचार परम्परा को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है।
यही प्रयत्न आगे जाकर दर्शन में परिवर्तित हो जाता है। प्लेटो तथा अन्य प्रारंभिक ग्रीक दार्शनिकों ने आश्चर्य के आधार पर ही दार्शनिक भित्ति का निर्माण किया था।
Suspicion vs Philosophy | फिलोसोफी और सन्देह
अन्य कुछ दार्शनिको (Philosophers) का विश्वास है, कि दर्शन की उत्पत्ति आश्चयं से नहीं, अपितु सन्देह से होती है। जिस समय बुद्धिप्रधान मानव बाह्य जगत् अथवा अपनी सत्ता के किसी भी अंश के विषय में सन्देह करने लगता हैं।
उस समय उसकी विचारशक्ति जिस मार्ग का आलम्बन लेती है, वही मार्ग दर्शन का रूप धारण करता है। पश्चिम में अर्वाचीन दर्शन का प्रारम्भ सन्देह से ही होता है। यह प्रारम्भ बेकन से समभना चाहिए।
जिसने विज्ञान और दर्शन के सुधार के लिए धार्मिक उपदेशों ( Teaching of church ) को सन्देह की दृष्टि से देखना शुरू किया। उन्होंने सुधार का मूल आधार सन्देह माना और इसी आधार पर अपनी विचार-धारा फँलाई।
इसी प्रकार डेकार्ट ने भी सन्देह के आधार पर ही दर्शन की नींव डाली। उन्होंने स्पष्टरूप से कहा कि दर्शन का सर्वप्रथम
आधार सन्देह है। पहले पहल उसने अपने स्वयं के अस्तित्व पर ही सन्देह किया कि में हूँ या नहीं ?
इसी सन्देह के आधार पर उन्होंने यह निर्णय किया कि मै अवश्य हूँ, क्योंकि यदि मेरा खुद का अस्तित्व ही न होता तो सन्देह करता ही कौन ? जहाँ सन्देह होता है, वहा सन्देह करने वाला भी अवश्य होता है।
इसी प्रकार उसने बाह्य जगत और ईश्वर का अस्तित्व भी सिद्ध किया। डेकार्ट का दार्शनिक विवेचन बेकन की अपेक्षा अधिक स्पष्ट एवं आगे बढ़ा हुआ था।
इसीलिए उन्हें पश्चिम के अर्वाचीन दर्शन का जनक (Father of Modern Philosophy) गिना जाता है ।
Pragmatism vs Philosophy | फिलोसोफी और व्यवहारिकता
आश्चर्य और सन्देह के सिद्धान्त पर विश्वास न करने वाले कुछ दार्शनिक ऐसे भी हैं, जो व्यवहारिकता को ही दर्शन की उत्पत्ति का कारण मानते हैं। वे कहते हैं, कि जीवन के व्यावहारिक पक्ष की सिद्धि के लिए ही दर्शन का प्रादुर्भाव होता है।
दर्शन की यह विचारधारा व्यावहारिकतावाद के नाम से प्रसिद्ध है। वास्तव में यह विचारधारा दर्शन की अपेक्षा विज्ञान के अधिक
समीप है। इसका दृष्टिकोण भौतिकता-प्रधान है। भारतीय परम्परा में चार्वाक दर्शन का आधार व्यावहारिकतावाद ही था।
Love of Wisdom vs Philosophy | फिलोसोफी और बुद्धिप्रेम
फिलोसोफी का आधार बुद्धिप्रेम ( Love of Wisdom ) है, ऐसा कई दार्शनिक मानते हैं। उनकी धारणा के अनुसार दर्शन की उत्पत्ति का कोई बाह्य कारण नहीं है, जिसको आधार बनाकर दर्शन का प्रादर्भाव हो। मानव अपनी बुद्धि से बहुत प्रेम करता है।
वह अपनी बुद्धि का प्रत्येक दृष्टि से हित चाहता हैं। वह कभी यह नहीं चाहता, कि उसकी बुद्धि अविकसित दशा में पड़ी रहे। यह
दूसरी बात है, कि लोगों को अपनी बुद्धि के विकास के लिए उचित वातावरण व साथन नहीं मिलते।
बुद्धिप्रेम की यह अभिव्यक्ति दर्शन के रूप में प्रकट होती हैं। इस धारणा के अनुसार दर्शन का कोई अन्य प्रयोजन नहीं होता।
बुद्धि को सन्तोष प्राप्त हो, खूब विकास हो, यही दर्शन का एक मात्र प्रयोजन होता है। दर्शन अपने आप में पूर्ण होता है। उसका साध्य कोई दूसरा नहीं होता। वह स्वयं ही साधन व स्वयं ही साध्य होता है।
भौतिक रूप से संसार के अध्यन की शाखा विज्ञान ( vigyan ) तथा दर्शन से सम्बन्ध को अधिक जानने के लिये लिंक पर जाये।
Spirituality vs Philosophy | फिलोसोफी और आध्यात्मिक प्रेरणा
कुछ दार्शनिक ऐसे भी हैं, जो दर्शन को केवल बुद्धि का खेल नहीं समझते। उनकी धारणा के अनुसार दर्शन का प्रादुर्भाव मनुष्य के भीतर रही हुई आध्यात्मिक शक्ति के कारण होता है।
अपने आसपास के वातावरण से अथवा जगत के भीतर रही हुई अन्य भौतिक साधन-सामग्री से जब मनुष्य की आत्मा को पूर्ण संतोष नहीं होता। वह सारी सामग्री में किसी-न-किसी प्रकार की न्यूनता का अनुभव करता है।
उसकी आंतरिक आवाज के अनुसार उसे शाश्वत शांति व संतोप नहीं मिलता, तब वह् नई खोज प्रारंभ करता है। आध्यात्मिक पिपासा की शान्ति के लिए नवकल्पना का निर्माण करना शुरू करता है।
आंतरिक प्रेरणा को सन्तुष्ट करने के लिए नई राह पकड़ता है। मनुष्य के इसी प्रयत्न को दर्शन का नाम दिया गया है। वह एक ऐसी चीज देखना चाहता है, जिसे सामान्य चक्षु नहीं देख सकते।
ऐसी वस्तु का अनुभव करना चाहता हैं, जिसे साधारण इन्द्रियां नहीं पा सकतीं। भारतीय परम्परा के एक बहुत बड़े भाग का दार्शनिक आधार यही है।
वर्तमान से असंतोष और भविष्य की उज्ज्वलता का दर्शन, यही आध्यात्मिक प्रेरणा का मुख्य आधार है। जिसे वर्तमान से संतोष होता है, वह भविष्य की आशा में वर्तमान को कदापि खत्तरे में नहीं डाल सकता।
इसीलिए आध्यात्मिक प्रेरणा की सबसे पहली शर्त वर्तमान से असंतोष है। केवल वर्तमानकालिक असंतोष से ही काम नहीं चलता, क्योंकि जब तक भविष्य की उज्ज्वलता का दर्शन नहीं होता।
तब तक वर्तमान को छोड़ने की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती। इसीलिए वर्तमानकालीन असंतोष के साथ-ही-साथ भविष्यकालीन उज्ज्वलता का दर्शन भी आवश्यक है।
इस प्रकार की प्रेरणा से जिस दर्शन का निर्माण होता है, वह दर्शन बहुत गम्भीर होता है, एवं उसका स्तर वहुत ऊंचा होता है। भौतिक विचारधारा का व्यक्ति उससे दूर भागने का प्रयत्न करता है।
आध्यात्मिक प्रेरणा को धर्म का भी आधार माना जाता है। धर्म की उत्पत्ति, मान्यता तथा दर्शन से सम्बन्ध को अधिक जानने के लिये लिंक ( Dharma ) पर जाये।
Philosophy and Life | फिलोसोफी और जीवन
जीवन के साथ फिलोसोफी का क्या सम्बन्ध है, इसका ठीक-ठीक उत्तर प्राप्त हो जाने पर हम यह सहज ही में समझ सकते हैं, कि जीवन में दर्शन का क्या महत्त्व है।
जब हम यह मानते हैं कि मनुप्य का स्वभाव सोचना या चिंतन से ही मनुष्य बनता है, चिंतन ही एक ऐसा गुण है, जो मनुष्य को वास्तविक मनुष्य बनाता है। इसके बाद यह समझना कठिन नहीं है, कि जीवन और दर्शन कितने समीप है।
जब तक चिन्तन या सोचना मानव का आवश्यक स्वभाव बना रहेगा। तब तक मानव-जीवन में हमेशा दर्शन रहेगा। चिन्तन मानव के जीवन से दूर हो जाय यह अभी तक तो संभव प्रतीत नहीं होता।
ऐसी दशा में हम इस निर्णय पर पहुँच सकते हैं, कि जहाँ-जहाँ मानव रहेगा, दर्शन अवश्य रहेगा। दर्शन के अभाव में मानव का अस्तित्व ही असंभव है। यह एक दूसरा प्रश्न है, कि दर्शन का स्तर क्या है ?
किसी समाज की विचारधारा अधिक विकसित हो जाती है, तो किसी की प्रारम्भिक अवस्था में ही रहती है। इन्हीं अवस्थाओ के आधार पर हम दर्शन के स्तर का भी निश्चय करते हैं। जीवन में दर्शन अवश्य रहेगा, चाहे वह किसी भी स्तर पर रहे।
फिलोसोफी के इतिहास को देखने से पता चलता हैं, कि मनुष्य की विचारधारा या चिन्तन-शक्ति का प्रमुख केन्द्र उसका जीवन ही रहा है।
उसने सोचना प्रारम्भ तो किया अपने जीवन पर, किन्तु जीवन के साथ-साथ रहने वाली या तत्सम्बद्ध अनेक समस्याओ पर भी उसे सोचना पड़ा, क्योंकि उन समस्याओ का समाधान किए बिना जीवन का पूरा चिन्तन संभव न था।
जीवन के सर्वांगीण चिन्तन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक था कि जीव से सम्बन्धित जगत के अन्य तत्त्वों का भी अध्ययन किया जाता और हुआ भी ऐसा ही।
ऐसा होते हुए भी मनुष्य ने दूसरी समस्याओ को इतना अधिक महत्त्व नहीं दिया कि जीवन का मूल प्रश्न गौण हो जाता। कहीं-कहीं पर उससे यह त्रुटि अवश्य हुई, किन्तु वह शीघ्र ही संभलता गया और अपने क्षेत्र को बराबर संभालता रहा।
दर्शन का मुख्य प्रयोजन जीवन का चिन्तन या मनन है, ऐसा कहने को अर्थ इतना ही है, कि उस चिन्तन या मनन का केन्द्र जीवन है।
जीवन के सांथ-साथ अन्य चीजों को भी लिया जाता है, किन्तु गौण रूप से उसी सीमा तक जहाँ तक कि जीवन के चिन्तन में वे चीजें सहायक बनें। बाधक बनने की हालत में उन्हें छोड़ दिया जाता है।
जीवन के मूल तत्त्वों का अध्ययन करना और उन्हें समभने का प्रयत्त करना और विवेक की कसौटी पर कसे हुए तत्त्वों के अनुसार आचरण करना यही फिलोसोफी और जीवन का वास्तविक सम्बन्ध है।
फिलोसोफर होने का अर्थ विचारक होना तो है ही, साथ-साथ ही यह समझना भी है, कि जीवन का उन विचारों के साथ कितना सामंजस्य हैं ? जीवन के मूल तत्त्वों पर उनका क्या प्रभाव है ? जीवन की मौलिकता से वे कितने मिले हुए है ?
उनकी शैली जीवन को कितनी गति प्रदान करती है? वृत्तियों के नियन्त्रण में उतका कितना हाथ रहता है? इन सारे प्रश्नो का चिन्तन ही सच्चे विचारक की कसौटी है।
सच्चा दार्शनिक जीवन के इन मौलिक तत्त्वों व प्रश्नों को आधार बना कर ही अपने चिन्तन क्षेत्र में आगे बढ़ता है, और बढ़ता- बढ़ता यहाँ तक बढ़ जाता है, कि चिन्तन की सीमा को साहस के साथ पार करता हुआ बहुत दूर निकल जाता है।
जहाँ से वापिस लौटना संभव नहीं। चिन्तन व मनन के नियन्त्रित क्षेत्र को पार कर जीवन का साक्षात्कार करता हुआ न जाने कहाँ चला जाता है ? जाता हुआ दिखाई देता है, किन्तु कहाँ जाता है, इसका पता नहीं लगता।
दर्शन अथवा फिलोसोफी के स्वरुप एवं उद्देश्य के विस्तृत अध्ययन हेतु दर्शन का स्वरुप ( Darshan ) को भी पढ़े।
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