आसनों से रोग नष्ट होते हैं, तथा शारीरिक सामर्थ्य उत्पन्न होती है। प्राणायाम से समस्त पाप नष्ट होते हैं। शरीर का शोधन होता है। प्रत्याहार से मन के विकार नष्ट होते एवं पात्रता उत्पन्न होती है।

धारणा (dharna) से धैर्य की वृद्धि होती है। ध्यान ( dhyana ) से अद्भुत चैतन्य शक्ति की प्राप्त होती है, तथा समाधि (samadhi) से समस्त शुभाशुभ कर्मों का त्याग होने से मोक्ष प्राप्ति होती है।

अत: किसी भी मोक्ष मार्गी यह समस्त उपाय ही किए जाने चाहिए। इनसे पूर्व यम-नियम का पालन पात्रता व भूमिका के लिए अथवा योग मार्ग की यात्रा के लिए स्वयं को तैयार करने के लिए आवश्यक हैं।

ध्यान, धारणा, समाधि के प्रयास सीधे फिर भी नहीं करने चाहिए। इससे पूर्व शेष प्रयासों के अभ्यास से मन को इस योग्य बना लेना चाहिए, कि ध्यान का उपाय करने पर बिना किसी सहारे के ही उसे सीधे साधा जा सके।

मन को जीते बिना, उसका संयम किए बिना, उसकी एकाग्रता शक्ति को बढ़ाए बिना और उसका निरोध किए बिना न तो कुण्डलिनी जागरण ही सम्भव है, न ही मोशक्षप्राप्ति।

प्राण, बिन्दु, प्रणव आदि के माध्यम से मन को एकाग्र करने के उपाय अब तक आपने जाने। इनमें कोई-सा भी उपाय कारगर हो सकता है। यह आवश्यक नहीं कि सभी उपायों को किया जाए।

विधान पूर्वक, तन्मयतापूर्वक, धैर्यपूर्वक तथा पात्रता उत्पनन करके कोई भी एक उपाय निरन्तर करते जाना सफलता या सिद्धि की प्राप्ति में सक्षम है।

अपने गुण, स्वभाव, प्रकृति, रुचि, सामर्थ्य आदि के अनुसार अपना मार्ग चुने। मन को साधने का उपाय पढ़ने या सुनने में यद्यपि सबसे सरल लगता है, परंतु करने में सबसे कठिन है।

क्योंकि मन को वश में करना अत्यंत दुष्कर है। प्राण, बिन्दु, प्रणब आदि के माध्यमों के सहारे यद्यपि यह कार्य अपेक्षाकृत सरल हो जाता है।

पूर्ण रूप से धारणा, ध्यान तथा समाधि को समझने के लिये पहले योग के बारे में जानकारी होना आवश्यक है। अतः योग ( yoga ) पर क्लीक कर योग सम्बंधित जानकारी प्राप्त करे।

Dhyana Dharna Samadhi and Pranayama | ध्यान धारणा समाधि और प्राणायाम

बारह प्राणायामों से प्रत्याहार तथा बारह प्रत्याहारों से धारणा होती है। बारह धारणाओं से ध्यान और बारह ध्यानों से समाधि होती है।

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प्राणायामों के बारह प्रकार (कुछ शास्त्र 8 मानते हैं) हैं। इन प्राणायामों के अभ्यास से प्रत्याहार (इन्द्रिय निग्रह) में सफलता मिलती है।

प्रत्याहार भी बारह पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, एक मन और एक बुद्धि/अहं हैं। इन बारहों को विषयों की ओर भागने से रोकना ही प्रत्याहार है। इनसे धारणा की योग्यता प्राप्त होती है।

बारह धारणाओं यद्यपि कुल 2 धारणाएं कही गई हैं। किन्तु बारह प्रमुख हैं से साधक ध्यान करने योग्य बनता है।

फिर बारह ध्यानों से सात चक्र व पांच महाभूत समाधि के योग्य साधक बन पाता है। अतः सीधे ध्यान या समाधि लगा पाना असम्भव है।

मात्र कुण्डलिनी जागरण या चमत्कारिक उपलब्धियां तो पूर्ववर्णित किसी भी उपाय से पाई जा सकती हैं। परन्तु योग का चरम लक्ष्य मोक्ष समाधि तक पहुंचे बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि योग यात्रा का यही अंतिम पड़ाव है।

पूर्ण रूप से प्राणायाम को समझने के लिये प्राणायाम ( Pranayama ) पर क्लीक कर जानकारी प्राप्त करे।

Dharna | धारणा

मन को समस्त विषयों से रोककर, ज्ञानेन्द्रियों को भी उनके समस्त प्रिय व अप्रिय विषयों से रोककर मन को किसी एक बिन्दु पर रोकना ही धारणा है।

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हृदय में मन की निश्चलता के साथ पंचभूतों को पृथक्‌-पृथक्‌ धारण करना ही धारणा है। मन को समस्त विषयों से रोककर एक ही स्थान पर निश्चल रखने के लिए कोई बिन्दु या लक्ष्य तो चाहिए।

वह बिन्दु या लक्ष्य अपनी रुचि के अनुसार कुछ भी हो सकता है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का अभ्यास सिद्ध हो जाने पर ही धारणा का अभ्यास करना चाहिए।

पंचमहाभूतों की धारणा द्वारा चित्त व प्राण को सुषुम्ना में ले जाएं अथवा चित्त व प्राण को अन्य उपायों से सुषुम्ना में ले जाएं मगर चित्त व प्राण का सुषुम्ना में आना स्वत: ही पंचमहाभूतों की धारणा का फल प्रदान कर देता है।

उस योगी को भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पांचों देवताओं (महाभूतों ) की धारणा (स्वतः) हो जाती है।

इस प्रकार पंचमहाभूतों पर विजय पा लेने से अणिमा आदि 8 सिद्धियां, सुन्दर, स्वस्थ, निरोगी व तेजस्वी शरीर का प्राप्त होना और भूतों के धर्म से निर्बाधता प्राप्त होती है।

आग से न जलना, जल से गीला न होना, पत्थरों या कठोर पदार्थ के वार से शरीर का आहत न होना आदि तीन प्रभाव होते हैं।

अणिमा अणु के समान सूक्ष्म रूप बना लेना, लघिमा शरीर को हल्का बना लेना, वायु में उड़ जाना। महिमा शरीर को बड़ा बना लेना, गरिमा शरीर को भारी बना लेना, अथवा किसी अंग विशेष को भारी बना लेना।

प्राप्ति इच्छित पदार्थ की संकल्प मात्र से प्राप्ति, प्राकाम्थ अनायास एवं निर्विन्न इच्छा की पूर्ति हो जाना, या जैसा चाहे वैसा हो जाना, वशित्व पंचभूतों व जीवों आदि का वश में हो जाना।

ईशत्व भौतिक पदार्थों व भूतों को नाना रूप में उत्पन्न करने व उन पर शासन करने की सामर्थ्य प्राप्त हो जाना जैसी शक्तिया प्राप्त होती है।

Earth Element Dharna | पृथ्वी तत्त्व की धारणा

मन सहित प्राण को भूमंडल में लीन कर इस प्रकार यह धारणा पांच घड़ी तक स्तम्भन करने से पृथ्वी तत्त्व जीता जाता है। पृथ्वी तत्त्व के जीतने के साथ मूलाधार चक्र का भेदन भी हो जाता है।

क्योंकि यह चक्र पृथ्वी तत्त्व का प्रमुख स्थान है, पीतवर्ण चतुष्कोण है। ‘लं’ इसका तत्त्व बीज है। और ब्रह्मा इसके अधिपति देवता हैं।

पृथ्वी तत्त्व विजित हो जाने पर भय, असुरक्षा आदि की समाप्ति होती है, और केन्द्रीयकरण बढ़ता है।

प्रृथ्वी चार कोण वाली, पीत वर्णा और ‘ लं’ अक्षर से युक्त है। पृथ्वी तत्त्व में वायु का आरोप कर और “लं’ को उसमें संयुक्त करके स्वर्ण जैसे वर्ण वाले चतुर्भुज ब्रह्मा का ध्यान करें।

Water Element Dharna | जल तत्त्व की धारणा

मनप्राण को पांच घड़ी तक जल तत्त्व में लीन कर लेने पर जलतत्तव की सिद्धि होती है । इसके अभ्यास से कालकूट विष भी भस्म होता है।

इस धारणा व तत्त्व की सिद्धि से ‘स्वाधिष्ठान चक्र ‘ का भेदन या उस पर अधिकार हो जाता है। इस चक्र का बीज “वं’ है। रूप चन्द्राकार है तथा वर्ण श्वेत और अधिपति देवता विष्णु हैं।

जल तत्त्व का यह प्रधान स्थान है। पाप तथा रोग नाश के साथ पाचन तंत्र की सबलता, विवेक, प्रफुल्लता आदि का लाभ साधक को प्राप्त होता है।

जल तत्त्व अर्धचन्द्रकार ‘वं’ बीज से युक्त है। इस तत्त्व में वायु का आरोप करके (प्राणों को संयुक्त करके) ‘वं’ को समन्वित करे और चतुर्भुज शुद्ध स्फटिक जैसे वर्ण वाले, पीताम्बर धारी भगवान विष्णु का ध्यान करें।

पांच घड़ी ऐसा करने पर समस्त पापों से मुक्ति होती है। इस धारणा के समय जल से भय नहीं रहता और ना ही जल से मृत्यु होती है।

Fire Element Dharna | अग्नि तत्त्व की धारणा

पांच घड़ी (दो घंटे) में ही अग्नि की धारणा सिद्ध होती है। तब साधक अग्नि में नहीं जलता। दहकते हुए अग्नि कुण्ड में प्रवेश कर जाने पर भी नहीं जलता।

इस अग्नितत्त्व की विजय करने पर मणिपूरक चक्र पर अधिकार हो जाता है। क्योंकि ‘रं’ मणिपूर चक्र का बीज है। आकृति त्रिकोण और वर्ण लाल है।

अग्नि तत्त्व का यह प्रमुख स्थान है, और इस चक्र के अधिपति देवता रुद्र हैं। इस चक्र पर अधिकार होने से जठराग्नि, ऊर्जा, आयु व बल बढ़ते हैं तथा साधक में तेज उत्पन्न होता है।

इन्द्रगोप के समान लाल वर्ण, त्रिकोणकार, प्रवाल जैसा रुचिर, तेजस्वरूप, बीज में ‘रं’ बीज को वायु से युक्त कर प्राण मन सहित रुद्र का ध्यान करते हुए अग्नि तत्त्व में पांच घड़ी लीन रहने पर वैश्वानरी धारणा सिद्ध होती है।

इसके अभ्यास से अग्नितत्त्व जीता जाता है।

Air Element Dharna | वायु तत्त्व की धारणा

सुरमे के समान रंग वाले, वर्तुलाकार, ‘यं’ बीज से युक्त वायु तत्त्व का उसके अधिष्ठाता देवता ईश्वर (ईशान) सहित भवों के मध्य ध्यान करता हुआ।

मन प्राण सहित स्वयं को भी वायु तत्त्व में लय कर देने पर पांच घड़ी के बाद वायु तत्त्व जीत लिया जाता है। इससे आकाश गमन की शक्ति प्राप्त होती है।

साथ ही अनाहत चक्र का भेदन भी हो जाता है। क्योंकि यह चक्र वायुतत्त्व का प्रमुख स्थान है। इसके अधिपति ईशान रुद्र हैं।

इसका बीज ‘ यं ‘ है। यह धूप्रवर्णीय व घट्कोणाकार है। शास्त्रों का मर्म समझने की शक्ति तथा आकाशगमन की शक्ति आदि भी साधक को इससे प्राप्ति होती है।

वायु की धारणा शक्ति के शनै: शनै: बढ़ने पर आसन पर बैठे हुए योगी के शरीर में कम्पन होने लगता है। अधिक अभ्यास होने पर मेंढक जैसी चेष्टाएं होती हैं।

जैसे मेंढक उछलकर पुन: भूमि पर आ जाता है, वैसी ही दशा पद्मासन पर बैठे योगी की होती है। जब अभ्यास और बढ़ जाता है, तब वह भूमि से ऊपर उठ जाता है।

पद्मासन में बैठा हुआ ही वह ऊपर उठता रहता है। इस प्रकार अतिमानवीय चेष्टाएं योगी करने लगता है। वायु तत्त्व की धारणा के समय वायु (आंधी/तूफान) का प्रकोप नहीं रहता।

इससे सहज ही जान सकते हैं, कि योगी मौसम, भूख, निद्रा, वृद्धावस्था तथा मृत्यु आदि से कैसे सुरक्षित रहते थे ?

अथवा पौराणिक कथाओं के अनुसार इन्द्र द्वारा डाले गए विभिन्‍न विघ्नो आग, वर्षा, तूफान, हिमपात आदि से कैसे
सुरक्षित रहते थे।

Space Element Dharna | आकाश तत्त्व की धारणा

स्वच्छ जल के समान वर्ण, वर्तुलाकार, ‘हंकार’ बीज युक्त आकाश तत्त्व को सदाशिव के सहित चिन्तन करें। मन प्राण सहित उन्हीं में लीन हो जाने पर पांच घड़ी में आकाश तत्त्व पर अधिकार हो जाता है।

इसके प्रभाव से मोक्ष के बन्द कपाट खुल जाते हैं साथ ही विशुद्ध चक्र पर भी अधिकार हो जाता है। क्योंकि
आकाश तत्त्व का यह प्रमुख स्थान है। इसका बीज ‘हं’ है।

यह रंगहीन तथा गोलाकार है, और इसके अधिष्ठाता पंचमुखी सदाशिव हैं। मोक्षद्वार खुलने की बात इसलिए कही है क्योंकि चक्र प्रकरण में विशुद्ध चक्र को ‘ ब्रह्म द्वार’ होना बताया गया है।

इसी पर चन्द्र बिम्ब से अमृत स्राव होता है। इसी के आगे सर्वोच्च तीर्थ स्थल, तीर्थराज, त्रिवेणी अर्थात्‌ आज्ञा चक्र है।

आकाश तत्त्व को वायु से आरोपित कर महादेव सदाशिव जो शुद्ध स्फटिक के समान बालचन्र मस्तक पर धारे हैं। सब प्रकार के शस्त्रास्त्रों तथा सर्पाभूषणों से सुशोभित, उमा के अर्धांग, वरदायक, समस्त कारंणों के कारण हैं।

आकाश तत्त्व में धारण करने से आकाश तत्त्व सिद्ध होता है तथा साधक आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से तथा हल्की वस्तु में संयम करने से आकाश गमन की शक्ति आ जाती है।

Dhyana | ध्यान

मन, बुद्धि, इन्द्रियों का प्राण सहित एक साथ एक ही बिन्दु या देश में केन्द्रित बने रहना ध्यान है। इन चारों का संयोग ही फलदाई है।

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यदि इन्हे चक्रों पर केन्द्रित करें तो कुछ समय के अभ्यास से चक्र जागृत हो जाएंगे। पंच महाभूतों पर केन्द्रित
करें तो अभ्यास से वे वश में आ जाएंगे।

मूलाधांर में सुप्त पड़ी कुण्डलिनी पर केन्द्रित करें और उसके जागृत होने की भावना करें तो कुण्डलिनी जागृत हो
जाएगी। किसी भी अन्य विषय पर केन्द्रित कर उसे समझने की भावना करें तो वह विषय समझ में आ जाएगा।

आत्मदर्शन की भावना से भृकुटियों के मध्य केन्द्रित करें तो आत्म साक्षात्कार हो जाएगा। मन्त्र पर केन्द्रित करें तो मन्त्र का साक्षात्कार हो जाएगा।

शून्य/अनन्त में केन्द्रित करें तो समाधि लग जाएगी और परत्रह्म का साक्षात्कार हो जाएगा अर्थात्‌ मन, बुद्धि, प्राण व इन्द्रियों को जिस भी बिन्दु, विषय या सत्ता पर भावना के साथ केन्द्रित कर देंगे वही प्रत्यक्ष होता चला जाएगा।

इसीलिए ध्यान में सिद्ध हो जाने पर साधक त्रिकालज्ञ, संर्ववेत्ता, मनोवांछित को पा लेने वाला, वरदान व श्राप में समर्थ तथा अनेक सिद्धियों का स्वामी हो जाता है। संक्षेप में यही ध्यान का फलस्वरूप है।

ध्यान के दो रूप हैं, सगुण व निर्गुण अथवा साकार व निराकार या मूर्त और अमूर्त। किसी रूप, आकार अथवा गुण में चिन्तन या ध्यान करना सगुण ध्यान है।

शून्य, महाशून्य अथवा अमूर्त या अनन्त में ही ध्यान लगाना निर्गुण ध्यान है। सरल शब्दों में सगुण ध्यान में ध्यान का कोई लक्ष्य होता है, किन्तु निर्गुण ध्यान में ध्यान का कोई विषय या लक्ष्य प्रकट रूप में नहीं होता।

स्पष्ट है, कि निर्गुण ध्यान बहुत कठिन है। किन्तु सगुण ध्यान सिद्धियों तक ही जाता है, और निर्गुण ध्यान मोक्ष तक जाता है।

सगुण रूप का ध्यान करने पर अणिमा आदि सिद्धियां प्राप्त होती हैं, और निर्गुण का ध्यान करने से समाधि, असम्प्रज्ञात समाधि, अंततः मोक्ष अतः निर्गुण ध्यान ही श्रेष्ठ है।

सुखासन में बैठकर मूलाधार चक्र का नासाग्र में ध्यान कर कुण्डलिनी जागरण की भावना से कुण्डलिनी जागृत होती है, तथा समस्त पापों एवं विकारों का नाश होता है।

कुण्डलिनी जागरण से सम्बंधित ज्ञान के लिए और उससे सम्बंधित रहस्यों को जानने के लिये kundalini लिंक पर जाये।

जब तक यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार व धारणा आदि द्वारा पात्रता और सक्षमता प्राप्त न कर ली जाए तब तक ध्यान में ऐसी समग्रता या सम्पूर्णता नहीं आ सकती कि चित्त में दूसरी वृत्ति उत्पन्न ही न होने पाए।

जहां चाहें मन, प्राण, इन्द्रियों व बुद्धि को वहीं स्थिर कर सकें और इतनी प्रबल व गहन भावना कर सकें। संक्षेप में यही ध्यान योग है।

शून्य में ध्यान क्यों ? समाधि की सिद्धि, कल्याण व मोक्ष के लिए शून्य में ही धारणा व ध्यान करने चाहिए। जैसा कि कहा गया है, शून्य में ही शक्ति की प्रवृत्ति होती है।

शक्ति से वर्ण पैदा होते हैं। वर्णों से मन्त्र और मन्त्रों से यह कभी न नष्ट होने वाली सृष्टि होती है। अत: इस जगत्‌ की शून्य के रूप में ही उपासना करनी चाहिए।

Samadhi | समाधि

सरल शब्दों में कहें तो ध्यान की परिकाष्ठा अथवा अत्यधिक प्रगाढ़ता ही समाधि है । ध्यान में मन, एक ही वृत्ति में प्राण, बुद्धि, इन्द्रियों सहित निश्चल अवश्य रहता है, किन्तु चित्त में और उस वृत्ति में भेद बना रहता है।

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समाधि में यह भेद समाप्त हो जाता है। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान ( अर्थात्‌ जो जाने, जिसको जाने और जैसा जाने ) का अन्तर ध्यान में रहता है।

मैं चिन्तन कर रहा हूं। केवल अमुक का ही चिन्तन कर रहा हूं। आदि का भाव मन में सूक्ष्म रूप से ध्यान में रहता है, किन्तु समाधि में मात्र चिन्तन ही रह जाता है।

मात्र लक्ष्य अथवा ज्ञेय/ध्येय ही रह जाता है । बाकी सब और ‘मैं’ भाव लुप्त हो जाते हैं।

महर्षि पातञ्जलि ने कहा है, जिस अवस्था में केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होने लगे वह अवस्था समाधि है।

जो योगी समाधि में लीन हो जाता है, उसे गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द इन पांच विषयों का तथा अपने पराए का ज्ञान नहीं होता।

अर्थात्‌ ज्ञनेन्द्रियों के अति अधिक केन्द्रीयकरण से उनके विषयों का होना, न॑ होना उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखता और मन व बुद्धि की अति अधिक लीनता से अपने-पराए, सुख दुःख, प्रिय-अप्रिय आदि भेदों का अभाव हो जाता है।

शब्द आदि तन्मात्राओं का कर्ण आदि ज्ञानेन्द्रियों में जब तक किंचित्‌ भी अंश विद्यमान रहता है, तब तक साधक ध्यानावस्था में रहता है।

किन्तु जब पांचों इन्द्रियों (मन, बुद्धि सहित) की वृत्तियां निःशेष भाव से आत्मा में लीन हो जाती है, तब समाधि होती है।

समाधि चित्त की निर्विकल्पावस्था है। तब किसी प्रकार का संकल्प-विकल्प साथक में नहीं रहता। “मैं क्या कर रहा हूं ?’ यह ज्ञान तो दूर “मैं हं।’

ऐसी अनुभूति भी नहीं रहती । साधक का ‘मैं’ अपने ध्येय से एकाकार हो जाता है, और बस ध्येय मात्र ही की प्रतीति रहती है। तभी समाधि होती है।

प्राणवायु का पांच घड़ी तक अवरोध करना धारणा, साठ घड़ी तक चित्त को एकाग्र रखना ध्यान, और बारह दिनों तक चित्त व प्राणों का निरंतर संयम समाधि कहा जाता है।

जो साधक बारह दिनों में समाधि सिद्ध कर लेता है। इस प्रकार प्राण का निरोध करने वाला मेधावी पुरुष जीवन मुक्त ( मोक्षाधिकारी ) हो जाता है।

समाधि युक्त योगी शत्त्रों के द्वारा नहीं छेदा जा सकता। वह किसी भी शरीरधारी द्वारा मारा नहीं जा सकता। उस पर मन्त्र, यन्त्र आदि का प्रयोग भी प्रभावहीन रहता है।

वह काल द्वारा भी बाधित नहीं होता और न ही कर्मों में वह ) लिप्त होता है। जो योगी समाधि में लीन हो जाता है, उसे कोई किसी प्रकार भी वश में नहीं कर सकता।

योगी समाधिस्थ होकर आदि अन्त से रहित, अवलम्ब, प्रपंच से रहित, विशुद्ध, आश्रय और आकार से हीन परमतत्त्व को जान लेता है।

यह असम्प्रज्ञात समाधि है, जहां से योगी वापस लौट सकता है। किन्तु सम्प्रज्ञात समाधि में परमतत्त्व को जानकर योगी उसी में विलीन हो जाता है।

सागर में मिले जल की भांति सागर में ही लीन होकर स्वयं सागर बन जाता है। अतः समाधि ही योगी का चरम लक्ष्य
है।

आज्ञा चक्र के बीज ओम का ध्यान करने से तथा मन, प्राण सहित भावना द्वारा कुण्डलिनी को आज्ञा चक्र में प्रेषित करना ही चक्र भेदन का उपाय है।

आज्ञाचक्र पर पहुंचे हुए साधक का फिर पतन नहीं होता। वह सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में आकर दानन्दमयी, निर्विकार, शुद्ध, बुद्ध तथा शिव स्वरूप हो जाता है।

आगे सहस्त्रार चक्र में प्रविष्ट होने या असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त करने के लिए उसे विशेष श्रम नहीं करना पड़ता।

वह मोक्ष का अधिकारी व आत्म साक्षात्कार कर लेने वाला कर्म बन्ध से निर्लिप्त हो जाता है। सहस्त्रार में परमशिव से कुण्डलिनी रूपा शक्ति का अभेद्यात्मक मिलन समाधि (samadhi) की अवस्था में ही सम्भव होता है।

जब तक शक्ति से संयुक्त न हो जाए तब तक सहस्वार चक्र में निवास करने वाला शिव ‘शव’ की ही भांति रहता है। शक्ति संयोग ही शव को शिव बना देता है।

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