भारतीय अध्यात्म और धार्मिक परम्पराओ में कर्म का सिद्धांत अत्यंत सुद्र्ण रूप में स्थापित है। यदपि भारत में ईश्वरवाद को मानने वाले ईश्वर द्वारा भाग्य निर्धारित करने के साथ साथ कर्म को भी सामानांतर मानते है।
कर्मवाद जैन दर्शन के मूल सिद्धांतो (Jain philosophy of karma) में है, क्योकि जब जैन तीर्थंकरो ने ईश्वर के अस्तित्व के विचार का निषेध किया। तब उनके सामने प्रश्न आया कि जीव के सुख-दुःख का क्या कारण है।
क्यों कभी कोई मनुष्य अच्छे कर्म करते हुये भी दुःख पाता है, वही दुष्ट व्यक्ति आनंद का भोग करता है।
इस शंका का समाधान जैन दर्शन में आत्मा के पुनर्जन्म के साथ पिछले जन्म के अच्छे बुरे कर्मो का आत्मा के साथ पुदगल के रूप में आना और उसके ही अनुरूप वर्तमान जन्म में सुख दुःख प्राप्त रूप में किया गया है।
कर्म-सिद्धांत को कई अन्य सिद्धांतों का सामना करना पड़ता है, जो इसके बिल्कुल विपरीत विचारों की वकालत करते हैं। कुछ विचारक समय (काल) को ब्रह्मांड का निर्धारण कारक मानते हैं।
अन्य लोग प्रकृति को निर्धारित करने वाले कारक के रूप में मानते हैं। आइये जानते है कि जैन दर्शन केकर्मवाद और अन्य मूल सिद्धांतो के बारे में क्रमवार तरीके से जानते है।
कर्म का वह सिद्धांत सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक है। इसने भारतीय दर्शन, विभिन्न वर्गों के भारतीय विचारकों के विचार और उनके जीवन को गहराई से प्रभावित किया है।
यह धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान, साहित्य, कला, और इसी तरह भारत के मूल में प्रवेश कर चुका है। दुख की उत्पत्ति और उपाय की महान पहेली का भारतीय समाधान कर्म शब्द में निहित है।
भारत के लोगों का दृढ़ विश्वास है कि आत्मा अमर है और अनादि काल से जन्म मृत्यु चक्र में प्रवास करती रही है। वे यह मानते हैं कि किसी प्राणी की समृद्धि या पीड़ा और अपने पूर्व कर्म के परिणाम का फल है।
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Jain philosophy of karma | कर्मवाद का जैन दर्शन
कर्म जन्म और मृत्यु का मूल है और जन्म और मृत्यु के इस चक्र को दुख भोगना कहा जाता है। जीव ने जो भी कर्म किए हैं, अच्छे या बुरे, अपने कर्म के साथ यह अपने अगले अस्तित्व (जन्म) में चला जाएगा।
जैसे कर्म करेगा उसके अनुसार ही फल प्राप्त होगा। कोई भी मनुष्य दूसरे के अच्छे या बुरे कर्म का उत्तराधिकारी नहीं होता।
उपरोक्त को ही कर्म सिद्धांत का सार कहा जा सकता है। बल्कि न केवल सभी नैतिक और दार्शनिक सिद्धांतों का अपितु लोकप्रिय धारणा का भी।
यदि व्यक्ति अस्वस्थ या विकृत पैदा हुआ है, तब कर्म सिद्धांत के अनुसार, यह उसके उसके द्वारा पूर्व जीवन किए गए पापों के कारण होना चाहिए।
यह एक स्थापित तथ्य है कि सभी दर्शन-शास्त्र भारत की शांत और नैतिक व्यवस्था ने कर्म के सिद्धांत का प्रचार किया। फिर भी यह जैन धर्म में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचता है।
कर्म का सिद्धांत हमारे वर्तमान व्यव्हार को भलीभांति स्पष्ट करता है और इसके पीछे क्या करक रहे होंगे, जिनके फलस्वरूप हमे व्यक्त परिणाम प्राप्त हुये।
जैन मत के अनुसार प्रत्येक जीव की आत्मा असीमित आनंद, शक्ति और ज्ञान से परिपूर्ण है। परन्तु वास्तव में कोई भी जीव आत्मा शुद्ध रूप में इन गुणों से परिपूर्ण नहीं पायी जाती है।
हमारी चेतना स्वरुप आत्मा से रेशो के सामान हमारे कर्म जुड़े रहते है। जिसे जैन दर्शन में पुदगल की कल्पना से प्रस्तुत किया गया है। आत्मा को पदार्थ से जोड़ने वाला तत्व ही पुद्गल है।
जिस प्रकार बदल सूर्य के प्रकाश को ढक लेते है, उसी प्रकार कर्म भी हमारी आत्मा की चेतना से जुड़ जाते है। इस कारण वश आत्मा असीम ज्ञान अथवा आनंद से दूर होकर कर्म बंधो के वशीभूत विभिन्न भावो में गति को बाध्य हो जाती है।
हमारे पूर्व भव (जन्म ) के कर्मो के अनुसार कर्म बंध आत्मा के साथ जुड़ते चले जाते है और उसी के परिणाम स्वरुप हमारा अगला जन्म कहा, कैसे होगा निर्धारित होता है।
इनके अनुसार ही वर्तमान जन्म में जीव पीड़ा, सुख अथवा व्याधि का पात्र होता है। आत्मा की कर्म बंधो से मुक्ति प्राप्त होने पर असीमित आनंद, शक्ति और ज्ञान को प्राप्त करते हुए मोक्ष को प्राप्त करती है।
कर्म का रूप लेने वाले भौतिक कण हो सकते हैं। इन्हे उनकी प्रकृति (Nature of karma) के अनुसार, समयावधि परिणाम की तीव्रता और मात्रा के चार कोणों से देखा जाता है।
जैन धर्म के बारे में अधिक जानने के लिये जैन धर्म (About Jainism) पर जाये एवं इसके मूल सिद्धांतो को जानने के लिये “मूल जैन सिद्धांत (Doctrines of jainism)” पढ़े।
Basis of Karma | कर्म सिद्धांत की अवधारणाएं
1 प्रत्येक कार्य के बाद उसका परिणाम अवश्य होना चाहिए। यह नियम न केवल एक भौतिक घटना पर लागू किया जा सकता है, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक तथ्य के लिए भी किया जा सकता है।
इसके द्वारा हमारे सभी स्वभाव, व्यव्हार, वृत्ति, आवेगों, उद्देश्यों, प्रवृत्तियों को नियंत्रित किया जाता है।
2 हमारे कर्मो के परिणाम इस जीवन काल में प्राप्त नहीं होते तब इनका फल हमे अगले जन्म में प्राप्त होता है।
3. किसी भी मनुष्य के वर्तमान में मिलने वाला फल उसके पूर्व जन्मो के कर्मो का फल माना गया है। इसे कर्म का सिद्धांत कहते है।
4 कर्म-सिद्धांत में मेटामसाइकोसिस का विचार शामिल है। इस जीवन में किए गए सभी कर्म भविष्य के जीवन के कारण के रूप में काम करेंगे। इस प्रकार, यह श्रृंखला एक अंतहीन प्रक्रिया में विस्तार करती चली जाती है।
तीर्थंकर किसे कहते है? यह अवतार से कैसे भिन्न होते है? इत्यादि प्रश्नो के उत्तर जानने के लिये Philosophy behind Teerthankar पर जाये।
जैन धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांत स्याद्वाद को समझने एवं अन्य से तुलना के लिये One-Sidedness Vs Many-sidedness ( अनेकांतवाद और एकान्तवाद ) अवश्य पढ़े।
The law of karma | कर्म का नियम
कर्म का सिद्धांत हमें बताता है कि अतीत में वे कारक कैसे थे जिनसे उत्पन्न बलों के परिणाम के रूप में उत्पन्न वर्तमान स्वरुप प्रकट हुआ है।
कर्म के सिद्धांत में विश्वास करने वाले अन्य सिद्धांतों को अधूरा मानते है, एवं कर्म के नियम को सर्वोपरि रखते है। उनके अनुसार कर्म की प्रधानता को नकार कर ब्रह्मांड की विविधता की व्याख्या करना लगभग असंभव है।
इसके बिना समय, प्रकृति, पूर्व-निर्धारण, संभावना, पदार्थ घटना की विविधता की व्याख्या नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनमें से कोई भी विविधता की एक अंतर्निहित प्रकृति नहीं रखती है।
कर्म घटनाओं के विभिन्न क्रमों के निर्धारक है, क्योंकि यह भिन्न भिन्न प्रकृति में गतिशील है। कर्म की सीमा के बाहर समय, प्रकृति, पदार्थ आदि भी नहीं हैं। ये विभिन्न कारक केवल कर्म के सार्वभौमिक नियम के कार्य की अभिव्यक्तियाँ हैं।
किसका प्रकृति में परिवर्तन कैसे होता है ? पदार्थ में भिन्नता के लिये कौन से कारक है? समय में परिवर्तन किससे संबंधित है? इन समस्याओं का समाधान केवल कार्य कर्म का नियम में है।
स्यादवाद के विरोध स्वरुप दिए जाने वाले तर्कों एवं उनके उत्तरो के लिए ‘स्याद्वाद दोष परिहार’ ( Debate On Syadvada ) अवश्य पढ़े एवं गहराई से जानने के लिए “स्यादवाद (Debrief the Syadvada Theory) ” अवश्य पढ़े।
Determinism and freewill | नियतिवाद और निर्णय की स्वतंत्रता
कर्म का सिद्धांत कर्म और उसके परिणाम की एक श्रृंखला से ज्यादा कुछ नहीं है। उन कृत्यों और उनके परिणामो का जिनमें प्रत्येक नियम का अनिवार्य रूप से पालन किया जाता है।
इस परिणाम को फल या प्रतिशोध के रूप में जाना जाता है। इस क्रिया और फल की श्रृंखला का विस्तार होता चला जाता है, क्योंकि प्रत्येक नया परिणाम एक और दूसरा परिणाम उत्पन्न करता है, जिसके लिए यह कारण के रूप में कार्य करता है।
वह घटना जो उसके पूर्ववर्ती कृत्य का परिणाम होती है, बदले में इसकी सफल घटना का कारण बन जाती है। इस प्रकार, एक से देखा गया दृष्टिकोण, एक घटना एक प्रभाव है। दूसरे कोण से देखा गया, एक घटना एक कारक है।
देखा जाये तो यह एक स्वतः चलने वाली अनंत प्रक्रिया है। इसे चलने के लिए कोई प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। यह आक्षेप कर्मवाद पर लगता आया है कि यह नियतत्ववाद और आवश्यकतावाद का अनुसरण करती है। अतः कहा गया कि नियतवाद मानव प्रयासों को अवरुद्ध कर देता है।
कर्मवादी इसके विपरीत कहते है कि कर्मवाद नियतिवाद सामान नहीं है बल्कि कर्मवाद ब्रह्माण्ड में होने वाली घटनाओ के सामंजस्य को प्रदर्शित करता है। उदाहरण के लिये बिना गर्मी की व्यवस्था के खाना नहीं बनाया जा सकता है।
वर्तमानकालीन चौबीस तीर्थकरों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने हेतु (24 Teerthankar Introduction) पर जाये। महावीर स्वामी के विस्तृत जीवन परिचय के लिये निम्नलिखित लिंको पर जाये।
महावीर स्वामी के विस्तृत जीवन परिचय के लिये निम्नलिखित लिंको पर जाये।महावीर स्वामी की शिक्षाओं और समाज तथा विभिन्न क्षेत्रो में शिक्षाओं से होने वाले प्रभाव को जानने के लिए Teerthankar Mahaveer Swami अवश्य पढ़े।
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