कुछ लोग यह समभते है, कि आदर्शवाद (Idealism) वह सिद्धान्त है, जो स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाले संसार को यथार्थ न समझ कर उसके मूल्यांकन या स्वरूप-निर्णय में कुछ कमी कर देता है।
संसार का स्वरूप जैसा दिखाई देता है, वैसा नहीं है, किन्तु अलग ही प्रकार का है, जो द्रश्यमान जगत से थोड़ी कमी लिए हुए है। अर्थात बहुत सी ऐसी बाते हमें इस संसार में दिखाई देती हैं, जो वस्तुत: संसार में नहीं है।
कुछ दार्शनिक यह मानते है, कि आदर्शवाद शब्द का प्रयोग, उन सब दर्शनशास्त्रो के लिए किया गया है, जो यह मानते हैं, कि विश्वव्यापी व्यवस्था के निर्माण में आध्यात्मिक तत्त्व का प्रमुख हाथ है।
इस धारणा के अनुसार प्रकृति का अवलम्बन या आधार आत्म-तत्त्व है। ऐसी अवस्था में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, कि
आदर्शवाद का वास्तविक स्वरूप क्या है? आदर्शवाद शब्द से हमें क्या बोध होना चाहिए?
आदर्शवाद वह सिद्धान्त या विश्वास है, जिसके अनुसार विचार-शक्ति (Thought) या तके (Reason) तत्त्व की अभिव्यक्ति का माध्यम है।
अर्थात तत्व का यही स्वभाव है, कि वह विचार या तर्क के माध्यम द्वारा अपने आपको प्रकट करता है। दूसरे शब्दों में विचार या तर्क से असम्बद्ध या स्वतंत्र तत्त्व की प्रतीति हमारे लिए सर्वथा असंभव है।
हमें जो कुछ प्रतीत होता है, अपनी विचारशक्ति या तर्कबल के आधार पर ही। प्रतीति के इस माध्यम को छोड़कर हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जो तत्त्वज्ञान में सहायक सिद्ध हो सके।
हमारा विचार या हमारा युक्ति-बल जिस प्रकार का तत्त्वज्ञान कराता है, हमें उसी प्रकार का तत्त्व-ज्ञान होता है। आदर्शवाद की इस व्याख्या के अनुसार मानव-बुद्धि ही एक ऐसा साधन है, जिसे आधार बना कर तत्त्व अपने को अभिव्यक्त करता है।
Misconceptions about Idealism | आदर्शवाद की मिथ्या धारणाएँ
कई लोगों का यह विश्वास है, कि आर्शवाद एक ऐसा सिद्धान्त है, जो छिपे या खुले तौर से यह सिद्ध करना चाहता है, कि विश्व की यह सम्पूर्ण रचना झूठी है। पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग का यह पूरा प्रदेश मिथ्या है। वास्तव में बात ऐसी नही है।
यह ठीक है, कि विश्व अपने वास्तविक रूप में वैसा नही है, जैसा कि दिखाई देता है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वह बिल्कुल झूठा, सर्वथा मिथ्या है।
आदर्शवाद की दृष्टि में उसका वास्तविक रूप कुछ और ही है। वह विश्व को विज्ञान या साधारण बुद्धि की घारणा तक ही सीमित नहीं करता, अपितु उसे इन सीमाओं से थोड़ा आगे ले जाता है।
कुछ लोग बर्कले का आदर्श समभकर आदर्शावाद पर यह आरोप लगाने लगते है, कि आदर्शवाद यह मानता है, कि हमारा दर्शन (perception) ही बाह्य पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है।
बर्कले की यह धारणा कि दर्शन ही सत् है, अथवा सत्ता का अर्थ दर्शन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वह तत्त्व या सत्ता को व्यक्तिगत दर्शन तक ही सीमित कर देता है।
आगें जाकर वह दर्शन के स्थान पर धारणा शब्द को अपना लेता है, और कहता है कि धारणा ही सत है, किन्तु फिर भी आदर्शवादी नहीं कहा जा सकता।
सच्चा आदर्शवादी यह कभी नहीं मानता कि दर्शन, धारणा, विचारशक्ति, तर्क, युक्ति या बुद्धि तत्त्व अथवा सत्ता का निर्माण करते है। वह तो कहता है, कि विचार या बुद्धि का कार्य निश्चय या निर्णय करना है।
निर्माण और निर्णय भिन्न-भिन्न चीजें हैं। विचार का कार्यक्षेत्र तत्त्व को समझना अर्थात अपने माध्यम द्वारा तत्त्व का निर्णय करना है। तत्त्व एक ऐसी सत्ता है, जो उससे भी बड़ी है, जो उसके निर्णय का विषय बनती है।
दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सत्य या सत्ता विचार का कार्य नहीं, अपितु विषय है। विषय के लिए यह आवश्यक नही कि वह कार्य भी हो। तत्व और विचार में विपयविपयिभाव सम्बन्ध है, न कि कार्यकारणभाव सम्बन्ध।
कहने का तात्पर्य यही है, कि आदर्शावाद जगत की वास्तविक बाह्य सत्ता में कदापि अविश्वास नहीं करता। इतना अवश्य है, कि उसकी अन्तिम सत्ता उसी रूप में नहीं मानता, जिस रूप में कि वह साधारण प्रतीति का विषय बनती है।
यद्यपि वे पदार्थ जिन्हें हम जानते हैं, अपनी सत्ता के लिए हम पर निर्भर नहीं रहते है। हम उन्हें जानें या न जानें, ये जगत में रहते ही है। इसका अर्थ यह हुआ कि वे ज्ञाता से स्वतंत्र सत्ता हैं।
इतना होते हुए भी पदार्थ-विषयक सम्पूर्ण निर्णय ज्ञान से पूर्ण सम्बद्ध होता है। ज्ञान से असम्बद्ध पदार्थ-निर्णय कदापि संभव नहीं होता ।
इससे यह स्पष्ट है, कि जिस ढंग से हमें पदार्थ-ज्ञान होता है, उसकी एक निश्चित विधि एवं मार्ग है, और उस विधि की सीमा के अन्दर रह कर हो हम वस्तुओं का ज्ञान कर सकते है।
पदार्थ हमारी दृष्टिमें वैसा ही प्रतिभासित होता है, जैसा कि हम उसे जानते है। हमारा ज्ञान पदार्थ और विचार के पारस्परिक सम्बन्ध से उत्पन्न होता है।
ऐसी हालत में वस्तुतः में पदार्थ क्या है, उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, यह हम अपने साधारण ज्ञान से कैसे जान सकते है? इससे यह फलित होता है, कि पदार्थ अपने आप में क्या है, यह जानना हमारे लिए असम्भव है।
इसका अर्थ यह हुआ कि हम सत्य का स्पष्टीकरण करने में सफल नहीं हो सकते। वास्तव में सत्य क्या है, इसका अंतिम निर्णय करना हमारे अधिकार से बाहर है।
हम जगत को जिस रूप में देखते हैं, वह रूप केवल चैतन्य के माध्यम द्वारा हमारे सामने आता है। इस आधार पर हम यह कह सकते है, कि जगत का अन्तिम रूप आध्यात्मिक होना चाहिए, क्योंकि आध्यात्मिकता के अभाव में ज्ञान की संभावना ही नहीं रहती।
आध्यात्मिक (चेतन्य) और जड़ दो प्रकार की स्वतन्त्र सत्ता मानने पर उनमें परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। दो परस्पर विरोधी सत्ताएं आपस में ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकती।
इसके अतिरिक्त सम्बन्ध का क्या स्वरूप है, और वह दोनों सत्ताश्रों को केसे जोड़ता है, इसके लिए किसी अन्य सम्बन्ध की आवश्यकता है, आथवा नहीं, इत्यादि प्रश्नों को हल करना बहुत कठिन है।
तात्पर्य यही है, कि आदर्शवाद अनुमान द्वारा इस निर्णय पर पहुँचता है, कि जगत का अन्तिम वास्तविक स्वरूप आध्यात्मिक है। वह आध्यात्मिक सत्ता से स्वतन्त्र जड़ तत्त्व की सत्ता स्वीकार नहीं करता।
यह आध्यात्मिक तत्त्व क्या है, व्यक्ति और जगत की अभिव्यक्ति का आधार क्या है? ज्ञान, विचार, अनुभव, बुद्धि आदि का आध्यात्मिक सत्ता में कैसे अन्तर्भाव होता है, इत्यादि प्रश्नों पर भिन्न-भिन्न आदर्शवादियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं।
Views of Idealism | आदर्शवाद के द्रष्टिकोण
आदर्शवाद के अनेक दृष्टिकोणों में एक दृष्टिकोण ग्रीक दार्शनिक प्लेटो का भी है। उनकी यह धारणा थी कि तत्त्व विचारो का एक सुसंगठित राज्य है। प्रत्येक विचार अनादि-अनंत एवं अपरिवर्तनशील है।
जब हम यह कहते हैं कि विचार ही तत्त्व है, तो इसका अर्थ यह नहीं समभाना चाहिए कि वे वैयक्तिक मस्तिप्क के आश्रित एवं परतंत्र हैं। विचार अपने श्रापमें स्वतंत्र, अनादि, अनंत एवं अपरिवर्तनशील है।
बर्कले का नाम भी लिया जा सकता है, यद्यपि वह पूर्ण आदर्शवादी नहीं है। ऐसा होते हुए भी वह युग के आदर्शवाद के निर्माता है।
उन्होंने इस मत का खंडन किया कि वस्तु में दो प्रकार के धर्म आत्मगत एवं वस्तुगत होते है। आत्मगत धर्म का अर्थ वे गुण जो वास्वव में पदार्थ में तो नहीं होते।
किन्तु ज्ञाता के उन गुणों का वस्तु में आरोप कर देता है। उदाहरण के लिए वर्ण को लीजिए। वास्तव में पदार्थ का कोई वर्ण नहीं होता।
किन्तु ज्ञाता के नेत्र, मस्तिष्क व दर्शन का ऐसा स्वाभाव है, कि उसे उपरोक्त कारणों से वस्तु का वर्ण दिखाई देता है। हमें वस्तुगत धर्म का ज्ञान भी ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार आत्मगत धर्म का।
ऐसी स्थिति में हम यह कैसे कह सकते हैं कि श्रमुक धर्म तो वस्तु का अपना धर्म है, और अमुक धर्म ज्ञाता द्वारा आरोपित है। वास्तव में वस्तु में ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो आत्मगत न हो।
दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सारी वस्तु ही आत्मगत है, क्योंकि विविध धर्मों या ग्रुणों से अतिरिक्त या भिन्न वस्तु अपने आप में कुछ नहीं है। तात्पर्य यह है, कि बर्कले के मतानुसार ज्ञाता स्वयं ही वस्तु का निर्माण करता है।
ज्ञाता के दर्शन या ज्ञान से भिन्न कोई बाह्य पदार्थ नहीं होता। ज्ञाता का ज्ञान खुद ही बाह्य पदार्थ का आकार धारण करता है, और वह ऐसा प्रतिभासित होता है, मानों अपने से भिन्न कोई बाह्य पदार्थ हो।
वास्तव में जितने भी बाह्य पदार्थ किसी को दिखाई देते हैं, किसी के अनुभव में आते हैं, सब अनुभवकर्ता के अपने दिमाग की उपज है। ज्ञाता की अपनी विचारधारा की कृति है।
काल्ट की धारणा अनुसार हमें वास्तविक पदार्थ का ज्ञान हो ही नहीं सकता। हमारा जितना भी ज्ञान या अनुभव है, वह दृश्यजगत तक ही सीमित है।
हमारे ज्ञान की उत्पत्ति में बहुत से ऐसे कारण है, जिनकी उपस्थित्ति में हमें पदार्थ अपने आप में क्या है, अर्थात पदार्थ का अपना वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका ज्ञान नही हो सकता।
आगे क्रमशः हेगल ने संसार का अन्तिम तत्त्व विचार माना। उनके विचार से विचार की भूमिका पर ही सारा संसार टिक सकता है। यह विचार तत्त्व बर्कले की तरह वैयक्तिक न होकर सावंत्रिक है। साथ ही साथ सापेक्ष न होकर निरपेक्ष है।
हेगल यह भी मानना है, कि तर्क, हेतु आ्दि इसी विचार के पर्याय हैं। विचार, तर्क, हेतु आदि में कोई भेद नहीं है। यह निरपेक्ष विचार स्थितिशील न होकर गतिशील है। इसी गतिशीलता के कारण हेगल के दर्शन में डाइलेक्टिक का जन्म होता है।
जो विधि, निषेध और समन्वय के रूप में परिणत होता है। निरपेक्ष सावंत्रिक सत्य तक पहुँचने के लिए यह आवश्यक है, कि विधि और निषेध का सामना करते हुए समन्वय तक पहुँचा जाय।
यह समन्वय की भूमिका ही अन्तिम है। ईस भूमिका पर पहुँचते ही जगत की सारी विप्रतिपत्ति (contradiction) शान्त हो जाती है। विश्व का सम्पूर्ण विरोध, जो कि विधि और निषेध रूप से हमारें सामने आता है, स्वत्त: शांत हो जाता है।
समन्वय की इस स्थिति में किसी का नाश या अभाव नहीं होता अपितु सबको उचित स्थान प्राप्त हो जाता है। यही हेगल का निरपेक्ष आदर्शवाद या विचारवाद है।
हेगल के बौद्धिक नेतृत्व का अ्रनुसरण करते. हुए ब्रेडल ने यह सिद्ध किया कि द्रव्य, गुण, कर्म, आकाश, काल, कार्य, कारण आदि का आधार अनेक विरोधी विचारों को उत्पन्न करता है।
उसने इन सब प्रतीयमान तत्त्वों को आभास कहा। वास्तविक तत्त्व के लिए यह आवश्यक है, कि वह सम्बन्ध-निरपेक्ष हो, ऐसा कह कर ब्रेडल ने यह सिद्ध किया कि सावंत्रिक अनुभव ही अन्तिम तत्त्व है।
इस अनुभव के भीतर बुद्धि, वेदना और इच्छा तीनों रहते है।
बोसांकेट की धारणा के अनुसार विचार या तक का लक्ष्य पूर्ण है। यह ‘पूर्ण स्वभाव से ही निर्माण करने वाला है। जब यह विचार अपनी पूर्णता तक पहुंच जाता है, तभी तत्त्व की सम्पूर्णंता का निर्माण होता है।
यह पूर्णत्ता आध्यात्मिक अद्वैत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह आध्यात्मिक अद्वैत ही अनुभव की एकता है। यह अंतिम आध्यात्मिक तत्त्व ही वास्तविक तत्त्व है। आदर्शवाद की इस धारा को हम आध्यात्मिक अद्वैतवाद कह सकते है।
Idealism in Indian philosophy | भारतीय दर्शन की दृष्टि में आदर्शवाद
बौद्ध दर्शनकी महायान शाखा और अद्वैत वेदान्त, भारतीय आदर्शवाद (Idealism) के प्रतिनिधि हैं। इन दोनों परम्पराओ में भारतीय आदर्शवाद अच्छी तरह समा सकता है, ऐसा कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।
बौद्ध धर्म की मुख्य रूप से दो धाराएँ हीनयान और महायान हैं। इनमें से हीनयान खुले रूप से यथार्थवादी है, इसमें कोई संशय नहीं। महायान के पुनः दो भेद माध्यमिक और योगाचार हैं।
माध्यमिक विचारधारा के अनुसार तत्त्व चतुष्कोटिविनिम्नुत्ति कहा गया है। मानवीय बुद्धि की चारों कोटियाँ तत्त्व-ग्रहण की योग्यता से रहित है।
हमारी सामान्य बुद्धि में इतनी योग्यता नहीं कि वह अंतिम तथ्य तक पहुंच सके। वह केवल प्रपंच तक ही सिमित है।
योगाचार विज्ञानद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। विज्ञानद्वैतवाद का अर्थ है, केवल विज्ञान ही सत तत्त्व है। लंकावतारसूत्र में इस तत्त्व को आलयविज्ञान कहा गया है। यह तत्त्व ग्राह्म-प्राहक भावसे विनिमुक्त है।
बुद्धि से विवेचन करने पर हम इस तत्त्व का कोई भी स्वरूप निश्चित नहीं कर सकते। ऐसी अवस्था में यह तत्त्व अनभिलाप्य एवं निःस्वभाव है।
असंग एवं वसुबन्धु ने इसी तत्त्व को विज्ञप्तिमात्रता कहा है। विज्ञप्तिमात्रता का पूर्ण वर्णन हमारी शक्ति से बाहर है। साधारण बुद्धि इसका वर्णन करने में असमर्थ है।
विज्ञानाद्वैतवादप्रतिपादित विज्ञप्तिमात्रता या विज्ञान क्षणिक है या नित्य है? इस प्रश्न का उत्तर दो रूपों में मिलता है। कुछ विद्वान
प्राचीन आचार्यों की कृतियों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, कि योगाचार नित्यवादी है।
उनका कथन है, कि विज्ञानाद्वैत में क्षणिकत्व की कल्पना पीछे के तर्कयुग के आचार्यों की देन है। कुछ विचारक मूलतः विज्ञानाद्वैत को क्षणिक मानते हैं।
वे कहते हैं, कि क्षणिक विज्ञान-परम्परा ही विज्ञानाद्वैत का मूलभूत सिद्धान्त है। योगाचार ने कभी भी नित्यवाद को स्वीकृत नहीं किया। वह हमेशा से अनित्यवादी अर्थात क्षणिकवादी रहा है।
जो कुछ भी हो, इतना अवश्य है, कि योगाचार केवल विज्ञान को ही अन्तिम तत्त्व मानता है।
अद्वैत वेदान्त ब्रह्म को अन्तिम तत्त्व मानता है। यही ब्रह्म आत्मा के नाम से भी जाना जाता है। ब्रह्म और आत्मा दो तत्त्व नहीं हैं, अपितु ब्रह्म ही आत्मा है, और आत्मा ही ब्रह्म है। हमारे सीमित ज्ञान का असीम आधार यही तत्त्व है।
यद्यपि हम अपने सीमित्त ज्ञान के आधार पर असीम ब्रह्म का वर्णन नहीं कर सकते, तथापि हमारी बुद्धि को कुछ सन्तोष प्राप्त हो, इस दृष्टि से कहीं-कहीं ब्रह्म का वर्णन करते समय उसे नित्य, अपरिवर्तनशील, शाश्वत, अनन्त, निरपेक्ष आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है।
वह न तो उत्पन्न होता है, न मरता है, न वह किसी का आश्रय है, न उसका कोई आधार है, वह अज है, नित्य है, शाश्वत है, पुराण है, न उसे कोई मार सकता है, न वह किसी को मार सकता है।
यह आत्म तत्त्व या ब्रह्म तत्व स्वयंसिद्ध है, क्योंकि सिद्धि और असिद्धि दोनों ही की सिद्धि उसकी सिद्धि के बिना असिद्ध है।
यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि यदि अद्वैत्त वेदान्त का यह अन्तिम तत्व नित्य और अपरिवर्तनशील है, तो फिर जगत के सारे पदार्थ प्रतिक्षण बदलते क्यों रहते हैं?
इस कठिनाई को दूर करने के लिए अद्वैत वेदान्त तत्त्व को तीन रूपों में देखता है।
1 व्यावहारिक सत्ता ।
2 प्रातिभासिक सत्ता ।
3 पारमार्थिक सत्ता ।
जाग्रत अवस्था का साधारण ज्ञान व्यावहारिक सत्ता का प्रतीक है। व्यावहारिक सत्ता की दृष्टि से हमारा साधारण ज्ञान सच्चा है, अथवा यों कहिए कि जाग्रत अवस्था के ज्ञान के विषयी-भूत पदार्थों की व्यावहारिक सत्ता है।
भ्रमावस्था में जो पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, उनकी प्रातिभासिक सत्ता है। इस सत्ता का व्यावहारिक सत्ता से खण्डत हो जाता है। ब्रह्म की सत्ता पारमाथिक सत्ता है, अर्थात् ब्रह्म ही अन्तिम सत्ता है। आत्मा ही निरपेक्ष तत्त्व है।
जाग्रत दशा की सत्ता इस सत्ता से बाधित हो जाती है। इस सत्ता से बढ़कर दूसरी कोई ऐसी सत्ता नहीं है, जिससे यह
बाधित हो, क्योंकि यही सबसे बड़ी, अनन्त, निरपेक्ष, एक, सर्वव्यापी है।
इसी तत्त्व को ‘प्रपंचस्थ एकायन्म’ और ‘भूमा’ भी कहा गया है। यद्यपि यह सब का आधार है, किन्तु अपने आधार के लिए इसे किसी अन्य की आवश्यकता नहीं रहती। यह अप्रतिष्ठित और अनाश्रित है।
इस तत्त्व का ज्ञान तत्त्वमय होने पर ही हो सकता है, तत्त्व से अलग रहने पर नहीं। इसीलियें कहा गया है, कि ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता हैं।
ब्रह्मविद् ब्रह्म एव भवति। उस अवस्था में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता।
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