शरीर में टूटन के साथ दर्द प्रारम्भ होता है, जिससे हमे बुखार आने का अनुमान हो जाता है। जिस प्रकार छीको का आना जुकाम होने का परिचायक होता है।
ऐसे लक्षणों के प्रगट होने पर रोग विशेष के आक्रमण की आशंका होती है। शारीरिक रोग इस बात के चिह्न हैं, कि शरीर में कहीं कुछ न्यूनता या दुर्बलता है। भौतिक प्रकृति रोगों के स्पर्श के लिए कहीं से खुली हुई है, तभी तो रोग बाहर से हमारे अंदर आते हैं।
जब यह आते हैं, तभी यदि कोई इनके आने का अनुभव कर इनके शरीर में प्रवेश करने से पहले ही स्वर योग से रोग निवारण (Swara yoga healing) अभ्यास करे।
तो वह मनुष्य रोगमुक्त रह सकता है। जब यह आक्रमण अंदर से उठता हुआ दिखाई देता है, तो समझना चाहिए कि यह बाहर से आया हुआ रोग चेतना में प्रवेश करने से पहले पकड़ा नहीं जा सका।
अच्छा होता, यदि हम रोग को प्रवेश पाने से पूर्व ही जान लेते और उसे पहले ही रोक देते। यह क्रिया स्वर-योग द्वारा सरलता तथा सफलतापूर्वक हो सकती है।
समस्त रोग शरीर में सूक्ष्म चेतना और सूक्ष्म शरीर के ज्ञान तंतुमय या प्राण भौतिक कोष द्वारा प्रवेश करते हैं। जिसे भी सूक्ष्म शरीर का ज्ञान है अथवा सूक्ष्म चेतना से सचेतन है, वह रोगों को शरीर में प्रवेश होने से पूर्व ही मार्ग में से लौटा सकता है।
हाँ, यह संभव हो सकता है कि निद्रावस्था अथवा अचेतन अवस्था में कोई रोग आक्रमण कर दे, किंतु फिर भी आंतरिक साधन द्वारा उसका निवारण हो सकता है।
जब नियमित श्वासगति में विकृति पैदा होती है, तो जानना चाहिए कि शत्रु सेंघ लगा रहे हैं। जो आक्रमण से पूर्व ही सावधान हो जाता है, वह रक्षा की तैयारी कर लेता है। इस प्रकार रोगों से बचने के बहुत अवसर उसे मिल जाते हैं।
जब स्वर में कुछ विकार पैदा होने लगे और नियमित समय अथवा गति में अंतर प्रतीत होने लगे तो सावधान हो जाना चाहिए और स्वरों को ठीक गति पर लाने का प्रयत्न करना चाहिए।
स्वर बदलने के उपाय अन्यत्र लिखे जा चुके हैं, उनकी सहायता से स्वर की शुद्धि कर ली जाए तो रोगों को पूर्व ही रोका जा सकता है। आहार-विहार की विशेष सावधानी रोग-निवारण में सहायक हों सकती है।
जब रोग आ ही जाए तो देखना चाहिए कि उसका आरंभ किस स्वर से हो रहा है ? जिस स्वर में रोग की शुरूआत हुई हो, उसे बदल लीजिये और जब तक बीमारी का प्रकोप बढ़ा हुआ रहे, उस स्वर को बदले रहिये।
ऐसा करने से दस-बीस दिन में अच्छी होने वाली बीमारी आधे या चौथाई समय में ही अच्छी हो जायगी। बीमारी का वेग जिस समय अत्यंत प्रबल हो रहा हो।
और रोगी वेदना से छटपटा रहा हो तो उसका चलित स्वर बदलवा देना चाहिए, इससे उसको तुरंत ही शांति मिलेगी और बढ़ा हुआ कष्ट मिंट जाएगा।
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Swara yoga stomach healing | स्वर योग से उदर-शुद्धि
सोकर उठने से पूर्व बिस्तर पर हाथ फैलाकर और बदन ढीला करके चित्त लेट जाओ। दोनों हाथों की कोहनियों से तिल्ली व जिगर को दबाकर पैरों को सकोड़ो और फिर फैला दो।
इस प्रकार तीन-चार बार करने के पश्चात् 57 बार इधर-उधर करवट लेकर आलस्य को दूर करो। तत्पश्चात् एक या दो मिनट तक पेट के बल लेटो और तुरंत उपरोक्त स्वर नियम के अनुसार बिस्तर छोड़ दो।
इस क्रिया से मल ढीला होगा, तिल्ली व जिगर की ताकत बढ़ेगी। यदि किसी को जिगर या तिल्ली की शिकायत है तो इसका प्रयोग किए बिना औषधि-लाभ प्राप्त करें। जिन्हें उपरोक्त रोग नहीं है, उन्हें भी इससे लाभ होगा।
सप्ताह में दो-तीन बार करने पर भी हित होता है। बिस्तर छोड़ने से पहले पेट के बल अवश्य लेटना चाहिए। सोकर उठने तथा भोजन के पश्चात् दाहिने ओर से 23 बार अपने मस्तिष्क को पकड़ना चाहिए।
शास्त्र में इस क्रिया को ‘कपाल-भाती’ कहते हैं। इससे कफ दोष नाश होते हैं। इसी प्रकार सोकर उठने तथा संध्या समय तर्जनी को कानों में डालकर खुजलाना चाहिए। शास्त्र में इस क्रिया को ‘कर्णभाती’ कहा है, इस क्रिया से कान के रोग अच्छे हो जाते हैं।
आरंभ में सीधी करवट लेटने से यकृत पर जोर पड़ता है, जिससे पाचन शक्ति में रुकावट होती है। इसलिए भोजन पचाने के निमित्त दक्षिण स्वर चलाने की आवश्यकता है।
अतएव बाई करवट ही लेटना उत्तम, अपितु रात्रि में जितने अधिक समय लिए पिंगला स्वर चले, उतना ही उत्तम है। यदि कोई व्यक्ति संदेह करता हैं, कि बाएँ करवट लेटने से दिल, दबेगा तथा उसकी चाल में कमजोरी आयेगी।
किंतु यह श्रम मात्र है, क्योंकि पाचन-क्रिया ठीक रहने से हृदय की गति कदापि शिथिल नहीं हो सकती। आमाशय या आत्म-संबंधी रोगों में सास को छोड़ते हुए नाभि-पग्रंथि को मेरु-दंड की हड्डी से चिपकाने का प्रयत्न करना चाहिए।
सांस खींचते समय पेट को खूब पिचकाना और छोड़ते समय फुला देना इस क्रिया को बार-बार करने पर पेट के दोष मिट जाते हैं और पाचन-फ्रिया ठीक होने लगती है।
Swara yoga in temperature | ज्वर में स्वर योग उपयोगिता
अपराजिता या मोलसिरी के कुछ पत्तों को हाथ में मसलकर किसी छोटे रूमाल में पोटली-सी बनावें और उसे बार-बार सूँघते रहें तो विषम ज्वर बहुत जल्दी अच्छा हो जाता है।
जीर्ण ज्वर में प्रातः और सायंकाल के समय नीम की. पत्तियां सूँघने से घातुगत और जीर्ण स्वर अच्छे हो जाते हैं। स्वर विज्ञान के अनुसार विभिन्न रोगों’ की अलग-अलग जानकारी, निदान या चिकित्सा जानने की जरूरत नहीं है।
देखना चाहिए कि कौन स्वर चलने के समय अधिक पीड़ा होती है, उसी को बदल देना चाहिए। इससे बीमारी के अनुकूल शरीर की जो स्थिति थी, वह बदल जाती है।
Headache treatment with Swara yoga | आधाशीशी या सरदर्द में स्वर योग
आधाशीशी या सरदर्द के रोगों में नासिका द्वारा जल खींचना बहुत ही अच्छा हैं। इससे सिर के सब रोग अच्छे हो जाते हैं। जिस भाग में अधिक दर्द होता है, उसके विपरीत नथुने से थोड़ा-सा स्वच्छता का घृत ऊपर चढ़ाया जाय तो भी लाम होगा।
थकान-कड्दी मेहनत पर जब शरीर में थकान आ रही हो तो दाहिने करवट लेटे रहना चाहिए, जिससे बायाँ स्वर चलने लगे।इस प्रकार धकावट बहुत जल्दी दूर हो जाएगी।
Treatment using swara yoga | स्वर योग से रोग निवारण
यदि आपको स्वर योग से इलाज करना है तो निदान कीजिए, कि रोगी को चंद्र-स्वर का विकार है अथवा सूर्य-स्वर का ? बीमारी में सर्दी की अधिकता होना चंद्र-स्वर का और गर्मी की अधिकता होना सूर्य-स्वर का दोष प्रकट करता है।
कोई भी समझदार आदमी शेग के लक्षणों को देखकर आसानी से जान सकता है कि बीमारी सर्दी की है अथवा गर्मी की। दूसरी परीक्षा यह है कि रोगी को कुछ देर दोनों स्वरों की स्थिति में रखकर परीक्षा करनी चाहिए।
उसे जिसमें अधिक अशांति मालूम पडे, वह स्वर भी विकार होना सूचित करता है। कई बार रोगियों का चित्त बड़ा बेचैन होता है और वे कुछ ठीक निर्णय नहीं कर पाते, इसलिए सर्दी-गर्मी के लक्षणों और रोगी के अनुमान में अंतर पड़ जाता है।
ऐसी दशा में लक्षणों को ही प्रधानता देनी चाहिए एवं किस स्वर में पीड़ा बढ़ती है, इसका निर्णय रोगी पर न छोडकर स्वयं चिकित्सक को परीक्षा करके करना चांहिए।
जब वह निश्चय हो जाए कि अमुक स्वर का विकार है, तब उसके निवारण का उपाय करना चाहिए। प्राणायाम, श्वासोच्छवास, क्रिया रोग-निवारण का बहुत ही उत्तम उपवार है।
Swara yoga treatment methods | स्वर योग उपचार
रोगी को जिस स्वर में कष्ट हो, अपने उस स्वर को चलाओ। जब वह स्वर शुद्ध रीति से चलने लगे तो कौंच या मिटटी के एक गिलास में स्वच्छ जल लेकर नाक से छह इंच दूर रखकर उसमें सात बार स्वर का समन्वय होने दो।
गिलास को नाक की सींध में रखना चाहिए, ताकि श्वास वहाँ तक पहुँच सके। जल पर अपना प्रभाव डाल सके। छह इंच दूर इसलिए रखना चाहिए, कि शरीर में से साँस के साथ निकलती हुई खराबियाँ वहाँ तक न पहुँचें।
श्वास में जो विषैले पदार्थ बाहर आते हैं, वे भारी होने के कारण नाक से बाहर निकलने पर वायु का साथ छोड़कर कुछ ही इंच के फासले पर इधर-उधर छितरा जाते है, और छह इंच आगे पहुँचकर उसके विकार दूर हो जाते हैं।
तात्पर्य यह है, कि सौँँस के अंतिम सिरे पर पानी रखना चाहिए। जिसका स्वर घटा हुआ हो, उसे भी इतनी ही दूर लंबा स्वर उस वक्त चलाने की कोशिश करनी चाहिए। पानी को इतनी दूर नहीं रखना चाहिए।
जहाँ तक कि स्वर का प्रभाव न पहुँच सके। सात श्वासों का समन्वय करके इस जल में से आधी-आधी छटौंक पानी दो-दो घंटे के अंतर पर रोगी को पिलाना चाहिए।
बारह घंटे तक जल में यह असर रहेगा, इस प्रकार रोगी को स्वर की सहायता से अच्छा किया जा सकता है। यदि चिकित्सक रोगी के निकट न हो तो स्वर-शक्ति से कुछ वस्तु को वह अभिमंत्रित कर सकता है, जो बहुत दिनों तक काम देगी।
रोएँदार ऊनी फलालेन के कपडे को 21 बार स्वर शक्ति से मंत्रित करके उसे बीमार के पीड़ित अंग पर रखना चाहिए। यह फलालेन दो सप्ताह काम दे सकती है। दूर भेजना हो तो स्याही सोख कागज (ब्लाटिंग पेपर) को मंत्रित कर सकते हैं।
बच्चों के लिए ताबीज या रक्षा सूत्रों को मंत्रित किया जा सकता है। वैद्य लोग यदि अपनी दवाओं से इसी प्रकार मंत्रित कर लिया करें तो उनकी औषधियाँ लाभप्रद हो सकती हैं।
स्वर शास्त्र विज्ञानं के आधारभूत नियमो को जानने के लिये स्वर शास्त्र विज्ञान (Swara) को भी विस्तार पूर्वक अध्यन करे।
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