धर्म, दर्शन और विज्ञान ( Dharma, Darshan and Vigyan ) परस्पर सम्बद्ध तो हैं ही। अपितु किसी न किसी रूप में एक दूसरे के पूरक भी हैं। यह कहना भी ठीक है, कि इन द्रष्टियो के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं।

तीनों अपनी-अपनी स्वतंत्र पद्मति के आधार पर सत्य की खोज करते हैं। तीनों अपने-अपने स्वतंत्र द्रष्टि बिन्दु के अनुसार तत्त्व की शोध करते हैं। इतना होते हुए भी तीनों का लक्ष्य एकान्त रूप से भिन्‍न नहीं है।

इसी द्रष्टि को सामने रखते हुए हम धर्म, दर्शन एवं विज्ञान के लक्षणों व सम्बन्धों काया दिग्दर्शन करने का प्रयत्न करेंगे। ऐसी कौन सी कठिनाइयाँ आई, जिन्हे दूर करने के लिये मनुष्य जाति के हृदय में धर्म के प्रति प्रबल भावना जाग्रत हुई।

Origin of Dharma | धर्म की उत्पत्ति

सर्वप्रथम हम यह जानने का प्रयास करेंगे, कि मानव-जीवन में ऐसे कौन से प्रश्न आये, जिनके लिये मानव जाति को धर्म का आाश्नय लेना पड़ा।

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मान्यता है, कि मनुष्य ने जब प्रकृति के अद्भुत कार्य देखे तब उसके मन में एक प्रक्रार की विचारणा जाग्रत हुई। उसने
उन सब कार्यों के विषय में सोचना प्रारम्भ किया।

प्राकर्तिक विभीषिकाओं से डर और प्रकृति से मिले उपहारों को सोचते-सोचते वह उस स्तर पर पहुँच गया, जहाँ श्रद्धा का साम्राज्य था। यहीं से धर्म की विचारधारा प्रारम्भ होती है।

डेविड ह्यूम ( David Hume ) अपनी किताब नेचरल हिस्ट्री ऑफ़ रिलिजन ( The Natural History of Religion ) में इस मत का विरोध करते है।

उनकी धारणा के अनुसार धर्म की उत्पत्ति का झुख्य आधार प्राकृतिक कार्यों का चिन्तन नहीं, अपितु जीवन की कार्य-परम्परा है। मानव-जीवन में निरन्तर आने वाले भय व आशाएँ ही धर्म की उत्पत्ति के मुख्य कारण हैं।

जीवन के इन दो प्रधान भावों को छोड़कर अन्य कोई भी ऐसा कार्य या व्यापार नहीं, जिसे हम धर्म की उत्पत्ति का प्रधान कारण मान सकें।

ह्यू,म की इस मान्यता का विरोध करते हुए अन्य मत में केवल भय को ही धर्म की उत्पत्ति का कारण माना गया है। इस मान्यता के अनुसार भय ही सर्व-प्रथम कारण था, जिसने मानव को भगवान्‌ की सत्ता में विश्वास करने के लिए विवश किया।

यदि भय न होता तो मानव एक ऐसी शक्ति में कदापि विश्वास न करता, जो उसकी सामान्य पहुँच, समझ व शक्ति के बहार की वस्तु है।

इमानुएल कांट ( Immanuel Kant ) ने इन सारी मान्यताओं का खण्डन करते हुए इस धारणा की स्थापना की, कि धर्म का मुख्य आधार न आशा है, न भय है, और न प्रकृति के अद्भुत कार्य ही।

धर्म की उत्पत्ति मनुष्य के भीतर रही उस भावना के आ्धार पर होती है। जिसे हम नैतिकता कहते हैं। नैतिकता के अतिरिक्त ऐसा कोई आधार नहीं, जो धर्म की उत्पत्ति का आधार बन सकता था।

जर्मनी के ही अन्य दार्शनिक हेंगल ( Georg Wilhelm Friedrich Hegel ) ने इमानुएल कांट की इस मान्यता को विशेष महत्त्व न देते हुए इस मत की स्थापना की कि दर्शन और धर्म दोनों का आधार एक ही है ।

दर्शन और धर्म के इस अ्भेदभाव के सिद्धान्त का समर्थन चार्ल्स ( charles taylor ) आदि अन्य विद्वानों ने भी किया है।

हेगल के समकालीन दाशंनिक इलैरमाकर ने धर्म की उत्त्पत्ति का आधार मानव की उस भावना को माना। जिसके अनुसार मानव अपने को सर्वथा परतंत्र अनुभव करता है।

इसी ऐकान्तिक परतंत्र भाव के आधार पर धर्म और ईश्वर की मान्यता का जन्म हुआ होगा।

हेगल और इलैरमाकर की मृत्यु के कुछ ही समय उपरान्त धर्म की उत्पत्ति का प्रश्न डाविन के विकासवाद के हाथ में चला
गया। यह परिवर्तन दर्शन और विज्ञान की परम्परा के बीच एक गम्भीर संघर्ष था।

धर्म की उत्पत्ति का प्रश्न जो अब तक दार्शनिको का विषय था। अकस्मात्‌ विज्ञान का क्षेत्र हो गया। विज्ञान की शाखा मानव-विज्ञान (anthropology) विकासवाद की धारणा के आ्राधार पर धर्म की उत्पत्ति का अध्ययत करने लगा।

इस मान्यता के श्रनुसार आध्यात्मिक श्रद्धा ही धर्म की उत्पत्ति का मुख्य आधार मानी गई। इस प्रकार धर्म की उत्पत्ति के मुख्य प्रश्न को लेकर विभिन्न धारणाओं ने विभिन्न विचार धाराओं का समर्थन किया।

इन सब विचार धाराओं का विश्लेषण से करने से यह प्रतीत होता है, कि धर्म की उत्पत्ति का मुख्य कारण ना प्रकृति की विचित्रता, ना आश्चर्य और ना ही आशा है। अपितु मानव की असहाय अवस्था के कारण उत्पन्न भय है।

इसी अवस्था से छुटकारा पाने के लिये मानव ने श्रद्धा पूर्ण भावना का विकास किया। आगे चलकर इसी भावना ने मानव सभ्यताओं में धर्म का रूप धारण किया।

जहा तक भारतीय परंपरा का प्रश्न है। धर्म की उत्पत्ति का कारण दुःख माना गया है। मनुष्य सांसारिक दुःखो से मुक्ति पाने के लिये किसी भी धर्म के श्रद्धा पूर्ण मार्ग का अवलंबन करता है।

पाश्च्यात्य सभ्यता में इसे असहाय अवस्था से मुक्ति माना है, वही भारतीय परंपरा में सांसारिक दुखो से मुक्ति का मार्ग माना गया है।

Real meaning of Dharma | धर्म का वास्तविक अर्थ

धर्म की उत्पत्ति से संबंध रखने वाली विभिन्न धाराओं को जानने के पश्चात् यह जानना आवश्यक हो जाता है, कि धर्म का वास्तविक मर्म क्या है।

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“धारणात्‌ धर्म:” अर्थात्‌ जो धारण किया जाए वह धर्म है। ‘धृ’ धातु के धारण करने के अर्थ में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग होता है।

बौद्ध परम्परा में धर्म का अर्थ वह नियम, विधान या तत्त्व हैं, जिसका बुद्ध प्रवर्तन करते हैं। इसी का नाम “धर्म-चक्र-
प्रवर्तन” है।

बौद्ध जिन तीन शरणों का विधान करते हैं, उनमें धर्म भी एक है।

जैन परम्परा में वस्तु का स्वभाव धर्म कहा गया है। प्रत्येक वस्तु का किसी न किसी प्रकार का अपना स्वतंत्र स्वभाव
होता है। वही स्वभाव उस वस्तु का धर्म माना जाता है।

उदाहरण के तौर पर अग्नि का अपना एक विशिष्ट स्वभाव है, जिसे उष्णता कहते हैं। यह उष्णता ही अग्नि का धर्म है। आत्मा के अहिंसा, संयम, तप आदि गुणों को भी धर्म का नाम दिया गया है।

इनके अतिरिक्त ‘धर्म’ के और भी अनेक अर्थ होते हैं। उदाहरण के लिए नियम, विधान, परम्परा, व्यवहार, परिपाटी, प्रचलन, आचरण, कर्तव्य, अधिकार, न्याय, सदुगुण, नैतिकता, क्रिया, सत्कर्म आदि अर्थों में धर्म शब्द का प्रयोग होता आया है।

जब हम कहते हैं, कि वह धर्म में स्थित हैँ। तो इसका भ्रर्थ यह होता हैं, कि वह अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निभा रहा हैं। जब हम यह कहते हैं, कि वह धर्म का पालन करता है, तो हमारा अभिप्राय कर्तव्य से न होकर क्रिया-विशेष से होता है।

अमुक प्रकार के कार्य से होता है, जो धर्म के नाम से ही किया जाता है। इस प्रकार ‘धर्म” शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है।

भिन्न-भिन्न परम्पराएं अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार विविध स्थानों पर “धर्म शब्द के विविध अर्थ परिभाषित करती हैं। ऐसी कोई व्याख्या नहीं है, ऐसा कोई लक्षण नहीं है, जो सर्व-सम्मत हो।

भारतीय धर्मो के मूल छिपे मर्म को जानने के लिये योग ( Yoga ), चक्र जागरण ( Chakras ) और कुण्डलिनी ( kundalini ) की सम्पूर्ण प्रक्रिया को भी विस्तृत रूप में पढ़े।

Different definition’s of Dharma | धर्म की विभिन्न परिभाषाये

वस्तुतः ‘धर्म’ से हमारा अभिप्राय उस शब्द से है, जिसे अंग्रेजी में ‘रिलीजन’ कहते हैं। अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द से हमारे मन में जो स्थिर अर्थ जम जाता है।

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‘धर्म’ शब्द से वैसा नहीं होता, क्योकि ‘रिलीजन’ शब्द का एक विशेष अर्थ में प्रयोग होता हैं। ‘रिलीजन’ शब्द के एक निश्चित अर्थ को दृष्टि में रख कर ही भिन्न-भिन्न विचारक उस अर्थ को अपनी-अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त करते हैं।

उन सब रूपों में उस अर्थ का मूल प्रायः एक सरीखा ही होती है। ‘धर्म’ शब्द के विपय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। ‘रिलीजन’ अर्थात्‌ धर्म का पाश्चात्य विचारकों ने भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया है।

कान्ट के शब्दों में अपने समस्त कर्तव्यों को ईश्वरीय आदेश समझना ही धर्म है। हेगल की धारणा के अनुसार धर्म सीमित मस्तिष्क के भीतर रहने वाले अपने असीम स्वभाव का ज्ञान है।

अर्थात सीमित मस्तिष्क का यह ज्ञान कि वह वास्तव में सीमित नहीं अपितु असीम है, तथा यही धर्म है। मेयर्स ने धर्म की व्याख्या
करते हुए कहा, कि मानव-आत्मा का ब्रह्माण्ड-विषयक स्वस्थ और साधारण उत्तर ही धर्म है।

इन तीन मुख्य व्याख्याओं के अतिरिक्त और भी ऐसी परिभाषाये हैं, जिन्हें देखने से हमारी घर्म विषयक धारणाएं बहुत कुछ स्पष्ट हो सकती हैं।

व्हाइटहेड ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है। व्यक्ति अपने एकांकी रूप के साथ जो कुछ व्यवहार करता है, वही धर्म है।

अर्थात जिस समय व्यक्ति अपने को एकान्त में सर्वथा अकेला पाता है, और यह समझता है, कि जो कुछ उसका रूप है, वही उसका व्यक्तित्व है।

ऐसी अवस्था में उसका स्वयं के साथ जो व्यवहार होता है। व्हाइट्हेड की भाषा में वही धर्म है। यह धर्म का व्यक्तिक लक्षण होता है।

व्यक्ति का अंतिम मूल्य व्यक्ति स्वयं ही निर्धारित करता है। यह दृष्टिकोण एकांत व्यक्तिवाद ( absolute individualism ) कहलता है।

Dharma as society | सामाजिक धर्म

अमेरिकन मनोवैज्ञानिक जेम्स ने ठीक इसके विपरीत व्याख्या की है। उनके अनुसार जो ईश्वर से प्रेम करता है, वह अपने निकट अन्य लोगो से भी प्रेम अवश्य करता है। यह धर्म की सामाजिक व्याख्या है।

व्यक्ति केवल व्यक्तिगत साधना से धार्मिक नहीं हो सकता है। बल्कि धार्मिक बनने के लिये आवश्यक है, कि वह व्यक्ति समाज की भी सेवा करे। जो व्यक्ति समाज की उपेक्षा करके आराधना करना चाहता है।

वह वास्तव में धर्म से बहोत दूर होता है। यह दृष्टिकोण समाजवादी विचारधारा का समर्थन करता है। इसे हम पूर्ण समाजवाद ( absolute socialism ) कह सकते है।

हबर्ट स्पेंसर ने इस धारणा को दृष्टि में रखते हुये धर्म को विश्व को व्यापक रूप से समझने के प्रयास में एक काल्पिक धारणा कहा है। उनके अनुसार समस्त संसार एक ऐसी शक्ति की अभिव्यक्ति है, जो हमारे ज्ञान से परे है।

स्पेंसर की यह परिभाषा आदर्शवादी दृष्टिकोण के अत्यंत निकट है। मक्‍टागार्ट ने इसी लक्षण को जरा और स्पष्ट करते हुए कहा है। धर्म चित्त का वह भाव है, जिसके द्वारा हम विश्व के साथ मेल का अनुभव करते हैं।

जेम्स फ़्रेज़र के शब्दों में धर्म, मानव से ऊँची मानी जाने वाली उन शक्तियों की अवधारणा है, जो प्राकृतिक व्यवस्था व मानव-जीवन का मार्गदर्शन व नियंत्रण करने वाली मानी जाती हैं।

उपरोक्त स्वरूप विचारात्मक व भावात्मक न होकर क्रियात्मक है। आराधना या पूजा मानसिक होने की अपेक्षा विशेष रूप से कायिक होती है, यद्पि उसके अंदर इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव नहीं होता।

यदि ऐसा होता तो शायद आराधना करने की प्रेरणा ही न मिलती। जहाँ तक प्रेरणा की जागृति का प्रश्न है, इच्छाशक्ति अवश्य कार्य करती है।

जिस समय वह प्रेरणा कार्यरूप में परिणत होती है, उस समय उसका क्रियात्मक रूप हो जाता है, और वह कायिक श्रेणी में आ जाती है।

जेम्स फ़्रेज़र की उपरोक्त व्याख्या मानसिक व कायिक दोनों दृष्टियों से आराधना को वर्णित करती है। विलियम जेम्स ने किसी उच्च शक्ति विशेष की आराधना को ना मानकर विश्वास के आधार पर ही धर्म परिभाषित किया है।

Conclusion about Dharma | धर्म का सारांश

जेम्स के शब्दों में धर्म एक श्रद्धा है, जिसे धारण कर मनुष्य सोचता है अदृश्य नियमो पर चलता है, जिसके साथ मेल रखकर चलने में ही हित है।

इस व्याख्या के अनुसार धर्म का, आराधना या पूजा से कोई सम्बन्ध नहीं है। मनुष्य जगत्‌ के साथ मैत्री का व्यवहार करे, यही इस
व्याख्या का अभिप्राय है।

संसार का संचालन ऐसे नियम के अनुसार चलता है, जिसका स्पष्ट दर्शन हमारी योग्यता से परे है,तथा साधारण बुद्धि के आधार पर उसे नहीं समझ सकते है।

अपनी इस अयोग्यता के चलते संसार के समस्त प्राणियों के प्रति सदभाव और मित्रता का भाव रखना ही धर्म है। धर्म का यह लक्षण समाज में नैतिकता बनाये रखने के लिये बहोत उपयोगी है।

उपरोक्त सभी व्याख्याओं से स्पष्ट है, कि सर्वसम्मत धर्म को निर्धारित करना कठिन है। अपितु यह कहा जा सकता है, कि धर्म मनुष्य के अचार-विचार का एक आवश्यक अंग है।

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